गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः। Word to word Hindi translation
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥
उपर्युक्त श्लोक बहुप्रसिद्ध है। इस श्लोक में गुरु के महत्त्व को दिखाने के लिए गुरु की तुलना ब्रह्मा विष्ण तथा महेश के साथ की गई है। गुरुपौर्णिमा तथा शिक्षक दिन इत्यादि अवसरों पर विद्यालयों में इस श्लोक को बहुत बार पढ़ा जाता है। आईए, आज हम इस श्लोक का विस्तार से अभ्यास करते हैं।
श्लोक का रोमन लिप्यन्तरण
gururbrahmā gururviṣṇurgururdevo maheśvaraḥ,
guruḥ sākṣāt parabrahma tasmai śrīgurave namaḥ.
श्लोक का शब्दशः अर्थ
- गुरुः – गुरु
- ब्रह्मा – ब्रह्मदेव
- गुरुः – गुरु
- विष्णुः – भगवान् विष्णु
- गुरुः – गुरु
- देवः – भगवान्
- महेश्वरः – शंकर
- गुरुः – गुरु
- साक्षात् – प्रत्यक्ष
- परब्रह्म – परम आत्म तत्त्व
- तस्मै – उन
- श्रीगुरवे – श्री गुरु को
- नमः – प्रणाम
श्लोक का अन्वय
(शिष्यस्य कृते) गुरुः ब्रह्मा (अस्ति), गुरुः (एव) विष्णुः, गुरुः (एव) देवः महेश्वरः (अस्ति) गुरुः (च) साक्षात् परब्रह्म (अस्ति)। (अतः) तस्मै श्रीगुरवे नमः।
हिन्दी अनुवाद Word to word Hindi translation
शिष्य के लिए गुरु ही ब्रह्मदेव हैं, गुरु ही विष्णु हैं, गुरु ही भगवान् शंकर हैं और गुरु प्रत्यक्ष परब्रह्म हैं। इसीलिए उन श्रीगुरु को प्रणाम।

इस श्लोक के गलत उच्चार
यह श्लोक सुप्रसिद्ध है। अतः बहुत बार लोग इस श्लोक को सुनते हैं, पढ़ते हैं। और प्रायः गलत उच्चारण हो जाता है। इस श्लोक के उच्चारण में जो सामान्य त्रुटियाँ होती हैं उन पर चर्चा करते हैं –
गुरुर-ब्रह्मा-गुरुर-विष्णु
यहाँ र का उच्चारण अ के साथ नहीं करना चाहिए। यहाँ र हलन्त है – र्। तो उच्चारण ऐसे होना चाहिए –
गुरुर्-ब्रह्मा-गुरुर्-विष्णु
गुरुर-साक्षात्
चूँकि श्लोक के पहले भाग में गुरुर् यह शब्द बार-बार आता है, इसीलिए श्लोक में यहाँ भी गुरुर-साक्षात् ऐसा अशुद्ध उच्चारण होता है। यहाँ विसर्ग है – गुरुः साक्षात्
गुरुवे नमः
यहाँ गुरु इस शब्द का चतुर्थी एकवचन है। यहाँ गुरवे ऐसा पद होने के बावजूद भी बहुतेरे लोग गुरुवे ऐसा अशुद्ध उच्चारण करते हैं।
श्लोक पर विस्तार से चिन्तन
यह बात तो सब जानते हैं कि गुरु को प्रणाम करना चाहिए। परन्तु क्यों?
श्लोक में बताया गया है कि शिष्य के लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश तथा ब्रह्म ये चारों गुरु ही हैं। अर्थात् शिष्य के लिए गुरु सर्वस्व होते हैं। इसीलिए शिष्य गुरु को प्रणाम करता है।
सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा हैं, पालक विष्णु हैं तथा संहारक महादेव शंकर हैं। ठीक इसीप्रकार से शिष्य के जीवन में रचयिता, पालक तथा संहारक ये तीनों भूमिकाएं गुरु ही निभाते हैं।
गुरुर्ब्रह्मा
ब्रह्मा की भूमिका के गुरु
सबसे पहले शिष्य को विद्यादान करना करके छात्र के नवजीवन का आरम्भ करना। यह किसी भी व्यक्ति के लिए जीवन की नई शुरआत होती है। जब भी कोई व्यक्ति खाली बरतन ले कर गुरु के पास जाती है तो उसका पूर्वजीवन कुछ अलग होता है। परन्तु जब गुरु अपने समीप उसे स्थान देकर विद्यारंभ करते हैं, तो उस का जीवन बिल्कुल बदल जाता है। यानी उसके जीवन की एक नई शुरुआत होती है। यानी अब गुरु छात्र के नवजीवन की रचना करते हैं।
गुरुर्विष्णुः
विष्णु की भूमिका में गुरु
एकबार विद्या सीखने का आरंभ हो जाने के बाद असली मेहनत शुरू होती है। शुरआती उत्साह के दिन निकल जाने के बाद विद्या – अभ्यास के लिए कठिन परिश्रम शुरू हो जाते हैं। और यही वह महत्त्वपूर्ण कालावधि है जिस में छात्र की श्रद्धा तथा सहनशीलता की परीक्षा होती है।
यही वह दौर है जिस में अधिकांश छात्र पढ़ाई छोड़ने के बारे में सोचने लगते हैं। परन्तु गुरु अपनी कृपा और प्रेम से छात्र को अपने साथ बांधे रखते हैं। और छात्र के मन और बुद्धि की अच्छी परवरिश करते हैं।
गुरुर्देवो महेश्वरः
भगवान् शंकर की भूमिका में गुरु
भई दोष किसमें नहीं होते? प्रमाद (ग़लतियाँ) किससे नहीं होते? इन का नाश करने की भी आवश्यकता होती है। और गुरु इन दोषों को नष्ट करना खूब जानते हैं। इसीलिए गुरु शिष्य के जीवन में दोषसंहार शंकर की भूमिका में भी देखे जाते हैं।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म
ब्रह्मा Vs ब्रह्म
हमने ऊपर देखा की कैसे विद्यार्थी के जीवन में रचयिता (ब्रह्मा) पालनकर्ता (विष्णु) और संहारक (शंकर) ऐसी तिनों भूमिकाएं एक अकेले गुरु ही निभाते हैं। अब श्लोक में एक चौथी बात भी है – गुरुः साक्षात्परब्रह्म इति। यहां थोडी परेशानी हो सकती है। क्योंकि हमने पहले ही देखा है – गरुर्ब्रह्मा इति।
यहाँ ब्रह्म और ब्रह्मा इन दोनों शब्दों में भ्रम हो सकता है। इसीलिए इन दोनों में अंतर को समझना आवश्यक है। इन दोनों में अन्तर समझने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए।
संस्कृत भावार्थ
निर्माणं पोषणं विनाशनं च इत्येतानि क्रमशः ब्रह्मा विष्णुः महेशः च इत्येतेषां त्रिदेवानां कार्याणि सन्ति। तानि एव शिष्यजीवने गुरुः एव करोति। अर्थात् विद्यादानेन नवजीवनस्य निर्माणं, पोषणं तथा दोषाणां निवारणम् इत्येतानि सर्वाणि कार्याणि गुरुः एव करोति। अतः शिष्यस्य कृते गुरुः एव ब्रह्मा विष्णुः महेशः। तस्मात् गुरुः एव शिष्यस्य सर्वस्वम्। अतः गुरुः प्रत्यक्षं परब्रह्मरूपः अस्ति। अतः शिष्यः गुरुं प्रणमति।
हिन्दी अनुवाद
निर्माण, पोषण और विनाश ये क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश इन तीन त्रिदेवों के कार्य हैं। वे ही कार्य शिष्य के जीवन में गुरुः ही करते है। यानी विद्यादान ने नवीन जीवन का निर्माण, उसका पोषण तथा दोषों का विनाश ये सभी कार्य गुरु करते हैं। इसीलिए शिष्य के लिए गुरु ही ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। तस्मात् गुरु ही शिष्य के सर्वस्व (सबकुछ) हैं। इसीलिए गुरु परब्रह्मरूप हैं। अतः शिष्य गुरु को प्रणाम करता है।
व्याकरण
सन्धि
गुरुर्ब्रह्मा
- गुरुः + ब्रह्मा
- रुत्वम्
गुरुर्विष्णुः
- गुरुः + विष्णुः
- रुत्वम्
विष्णुर्गुरुः
- विष्णुः + गुरुः
- रुत्वम्
गुरुर्देवः
- गुरुः + देवः
- रुत्वम्
देवो महेश्वरः
- देवः + महेश्वरः
- उत्वम्
महेश्वरः
- महा + ईश्वरः
- गुणसन्धि
समास
महेश्वरः
- महान् ईश्वरः
- महान् च असौ ईश्वरः
- विशेषणविशेष्य समास
परब्रह्म
- परं ब्रह्म
- परं च तत् ब्रह्म
- विशेषणविशेष्य समास
इन श्लोकों को भी पढ़िए –
वक्रतुण्ड महाकाय …..
नमामि शारदां देवीम् …..
वसुदेवसुतं देवं …..
ज्ञान बांटने से बढ़ता है।
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