संस्कृत कथा

जननी तुल्यवत्सला हिन्दी अनुवाद शेमुषी। CBSE NCERT

पाठ की पूर्वपीठिका

वीडिओ – जननी तुल्यवत्सला। भाग १। प्रस्तावना और हिन्दी में कहानी।

महाभारत में पांडव कौरवों के साथ जुआ खेल कर अपना सारा राज्य खो चुके हैं। और अब उन्हें वनवास की सजा मिली है। पांडव अब वन में घूम रहे हैं। 

और इधर हस्तिनापुर में कौरवों के अंधे पिता धृतराष्ट्र के साथ महर्षि व्यास (जो कि महाभारत के रचयिता हैं और साथ ही साथ धृतराष्ट्र, पंडु और विदुर के पिता भी माने जाते हैं। यानी की महर्षि व्यास कौरव और पाण्डवों के दादा जी थे।) बाते करते हैं। व्यास जी राजा धृतराष्ट्र को बताते हैं कि तुम्हारे मूर्ख पुत्र दुर्योधन को रोको। यदि वह पाण्डवों को मारना चाहता है, तो इस में उसका खुद का ही विनाश है।

उस समय राजा धृतराष्ट्र कहते हैं कि उन्हे भी यह खेल पसन्द नहीं था। किसी को पसन्द नहीं था। परन्तु वे भी जुए के खेल में बह गए थे और बाद में यह अनर्थ हो गया था। उस वक्त राजा धृतराष्ट्र इस बात को भी स्वीकार करते हैं कि उनका पुत्र दुर्योधन अविवेकी है। परन्तु पुत्र के प्रति प्रेम ने उन्हे अन्धा (वैसे तो वे पहले से ही अपनी दोनों आँखों से अन्धे थे) बनाया है। 

इस बात को महर्षि व्यास मान जाते हैं। धृतराष्ट्र की भावना के समझते हैं। और कहते हैं कि – हम जानते हैं कि पिता के लिए पुत्र परम प्रिय वस्तु है। पुत्र से बढ़कर पिता के लिए कुछ भी नहीं होता है॥ 

और उसके बाद व्यास जी धृतराष्ट्र को इसी पुत्रप्रेम के विषय पर एक कथा सुनाते हैं। जिसमें बताया गया है कि कैसे गोमाता ने आँसू बहाकर इन्द्र को समझाया था कि बहुत सारी सम्पन्न चीजें होने के बावजूद भी पुत्र से बढ कर कोई नहीं होता।

और यही महर्षि व्यास जी ने धृतराष्ट्र को सुनाई कथा हमारे पाठ्यपुस्तक में है। मूल महाभारत में यह कथा श्लोक रूप में है। परन्तु हमारे पाठ्यपुस्तक में इसे सरल गद्य रूप में लिखा है। हालांकि कुछ श्लोक भी मूल महाभारत से लिए हैं। परन्तु पाठ गद्य रूप में है, पद्य में नहीं।

यदि आप मूल महाभारत में लिखित श्लोकबद्ध (साथ में हिन्दी अनुवाद भी है) कथा को पढना चाहते हैं तो वह इसी पाठ के साथ साथ कक्षा कौमुदी पर मौजूद है। यहां क्लिक करें

और यह सारी कथा व्यास जी ने धृतराष्ट्र को क्यों बताई?

क्योंकि महर्षि व्यास स्वयं कौरव और पाण्डवों के दादा थे। यानी धृतराष्ट्र और पण्डु के पिता। इसीलिए जब दुर्योधन ने कपट से जुए में पांडवों को हराया और वन भेज दिया। और फिर भी पांडवों को मारने के प्रयत्न हो रहे थे। तो इस से महर्षि व्यास के बहुत दुख हो रहा था। 

धृतराष्ट्र को केवल अपने पुत्र दुर्योधन से प्रेम था। परन्तु व्यास जी के लिए सारे कौरव और पांडव प्रेम के पात्र थे। उन में भी पांडव अब निर्बल थे, जंगल में घूम रहे थे। उन के लिए वे दुखी थे। वे धृतराष्ट्र को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि दुर्योधन को रोका जाए। परन्तु राजा धृतराष्ट्र पुत्रप्रेम से बंधे थे।

और इसी पुत्र प्रेम पर आधारित है हमारा पाठ – जननी तुल्यवत्सला।

जननी तुल्यवत्सला इस पाठ की प्रस्तावना

प्रस्तुतोऽयं पाठः महर्षिवेदव्यासविरचितस्य ऐतिहासिकग्रन्थस्य महाभारतान्तर्गतस्य “वनपर्व” इत्यतः गृहीतः। इयं कथा सर्वेषु प्राणिषु समदृष्टिभावनां प्रबोधयति। अस्याः अभीप्सितः अर्थोऽस्ति यद् समाजे विद्यमानान् दुर्बलान् प्राणिनः प्रत्यपि मातुः वात्सल्यं प्रकर्षेणैव भवति।

जननी तुल्यवत्सला इस प्रस्तावना का पदच्छेद

प्रस्तुतः अयं पाठः महर्षि-वेदव्यास-विरचितस्य ऐतिहासिक-ग्रन्थस्य महाभारत-अन्तर्गतस्य “वनपर्व” इत्यतः गृहीतः। इयं कथा सर्वेषु प्राणिषु सम-दृष्टि-भावनां प्रबोधयति। अस्याः अभीप्सितः अर्थः अस्ति यत् समाजे विद्यमानान् दुर्बलान् प्राणिनः प्रत्यपि मातुः वात्सल्यं प्रकर्षेण एव भवति।

जननी तुल्यवत्सला इस प्रस्तावना का हिन्दी अर्थ

प्रस्तुत यह पाठ महर्षि वेदव्यास (द्वारा) विरचित ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत के अन्तर्गत वनपर्व से लिया है। यह कथा सभी प्राणियों में समदृष्टि की भावना को जगाती है। इस का इष्ट अर्थ है कि समाज में विद्यमान दुर्बल प्राणियों के लिए भी माता का प्रेम बहुत गहरा ही होता है।

जननी तुल्यवत्सला – हिन्दी अनुवाद

तो चलिए इस पाठ को पढ़ना आरंभ करते हैं।

वीडिओ – जननी तुल्यवत्सला। भाग २।

कश्चित् कृषक: बलीवर्दाभ्यां क्षेत्रकर्षणं कुर्वन्नासीत्।

कश्चित् कृषक: बलीवर्दाभ्यां क्षेत्रकर्षणं कुर्वन् आसीत्।

कोई एक किसान बैलों से खेत की जुताई कर रहा था।

तयोः बलीवर्दयोः एकः शरीरेण दुर्बलः जवेन गन्तुमशक्तश्चासीत्।

तयोः बलीवर्दयोः एकः शरीरेण दुर्बलः जवेन गन्तुम् अशक्तः च आसीत्।

उन दोनों बैलों में से एक शरीर से कमजोर था और तेजी से जाने के लिए ना काबिल था।

अतः कृषकः तं दुर्बलं वृषभं तोदनेन नुद्यमानः अवर्तत।

इसीलिए किसान उस कमजोर बैल को कष्ट देकर आगे धकेल रहा था।

सः ऋषभः हलमूढ्वा गन्तुमशक्तः क्षेत्रे पपात।

सः ऋषभः हलम् ऊढ्वा गन्तुम् अशक्तः क्षेत्रे पपात।

वह बैल, (जो कि) हल ढोकर जाने के लिए ना काबिल (था), खेत में गिर पड़ा।

क्रुद्धः कृषीवल: तमुत्थापयितुं बहुवारम् यत्नमकरोत्।

क्रुद्धः कृषीवल: तम् उत्थापयितुं बहुवारम् यत्नम् अकरोत्।

क्रोधी किसान ने उसे उठाने के लिए बहुत बार कोशिश की।

जननी तुल्यवत्सला। भाग ३। हिन्दी अनुवाद

तथापि वृषः नोत्थितः।

तथा अपि वृषः न उत्थितः।

फिर भी बैल नहीं उठा।

भूमौ पतिते स्व-पुत्रं दृष्ट्वा

जमीन पर गिरे अपने बेटे को देख कर

सर्व-धेनूनां मातुः सुरभेः नेत्राभ्याम् अश्रूणि आविरासन्।

सर्व-धेनूनां मातुः सुरभेः नेत्राभ्याम् अश्रूणि आविरासन्।

सारे गोवंश की माता सुरभि (यानी गोमाता) की आंखों में आंसू आ गए।

सुरभेरिमामवस्थां दृष्ट्वा सुराधिपः तामपृच्छत् –

सुरभेः इमाम् अवस्थां दृष्ट्वा सुराधिपः ताम् अपृच्छत् –

 अवस्था को देखकर देवों के राजा (यानी भगवान इंद्र) ने  उससे पूछा –

“अयि शुभे! किमेवं रोदिषि? उच्यताम्” इति।

“अयि शुभे! किम् एवं रोदिषि? उच्यताम्” इति।

“हे शुभे! क्यों ऐसा रो रही हो? बोलो”

सा च –

और वह –

विनिपातो न वः कश्चिद् दृश्यते त्रिदशाधिप!।
अहं तु पुत्रं शोचामि, तेन रोदिमि कौशिक!॥

अन्वय –

(हे) त्रिदशाधिप, वः कश्चित् विनिपातः न दृश्यते। अहं तु पुत्रं शोचामि। (हे) कौशिक, (अहं) तेन रोदिमि।

हिन्द्यर्थ –

हे इन्द्र, आपका (यानी देवताओं का) कही भी अवनति नहीं दिखाई देती है। मैं तो पुत्र के लिए शोक कर रही हूँ। हे भगवान् इन्द्र, मैं उस से रो रही हूँ।

यह इस पाठ का प्रथम श्लोक है। यहा विस्तारभय से हम नें इस का केवल अन्वय और हिन्द्यर्थ दिया है। इस श्लोक के शब्दार्थादि के साथ पढने हेतु यहां क्लिक करें।

“भो वासव! पुत्रस्य दैन्यं दृष्ट्वा अहं रोदिमि।

“हे इन्द्र! पुत्र की दीनता देख कर मैं रो रही हूँ।

सः दीन इति जानन्नपि कृषक: तं बहुधा पीडयति।

सः दीनः इति जानन् अपि कृषक: तं बहुधा पीडयति।

वह दुरवस्थ है ऐसा जनते हुए भी किसान उसे बहुत प्रकार से पीडा दे रहा है।

सः कृच्छ्रेण भारमुद्वहति।

सः कृच्छ्रेण भारम् उद्वहति।

वह मुष्किल से भार ढोता है।

इतरमिव धुरं वोढुं सः न शक्नोति।

इतरम् इव धुरं वोढुं सः न शक्नोति।

औरों की तरह जुए को ढो नही सकता।

एतत् भवान् पश्यति न?” इति प्रत्यवोचत्।

यह आप देख रहे हैं न?” ऐसा उसने प्रतिवचन कहा (उत्तर दिया)।

“भद्रे! नूनम्। सहस्राधिकेषु पुत्रेषु सत्स्वपि

“भद्रे! नूनम्। सहस्र-अधिकेषु पुत्रेषु सत्सु अपि

“भद्रे! हां बिल्कुल। हजारो पुत्र होते हुए भी

तव अस्मिन्नेव एतादृशं वात्सल्यं कथम्?”

तव अस्मिन् एव एतादृशं वात्सल्यं कथम्?”

तुम्हारा इस में ही ऐसा प्रेमभाव कैसे है?”

इति इन्द्रेण पृष्टा सुरभिः प्रत्यवोचत् –

ऐसा इन्द्र के पूंछने पर गोमाता ने उत्तर दिया –

यदि पुत्रसहस्रं मे, सर्वत्र सममेव मे।
दीनस्य तु सतः शक्र! पुत्रस्याभ्यधिका कृपा॥

अन्वय –

(हे) शक्र, यदि मे पुत्रसहस्रम् (अस्ति), (तथापि) सर्वत्र मे समम् एव (कृपा वर्तते)। (परन्तु) दीनस्य पुत्रस्य सतः तु अभ्यधिका कृपा (अस्ति)।

हिन्द्यर्थ –

हे भगवान् इन्द्र, अगर मेरे हजारो पुत्र हैं, फिरभी सभी पर मेरी समान ही कृपा होती है। लेकिन गरीब पुत्र के होने पर तो अधिक ज्यादा कृपा है।

“बहून्यपत्यानि मे सन्तीति सत्यम्।

“बहूनि अपत्यानि मे सन्ति इति सत्यम्।

“बहुत सारी सन्ताने मेरी हैं यह तो सत्य है।

तथाप्यहमेतस्मिन् पुत्रे विशिष्य आत्मवेदनामनुभवामि।

तथापि अहम् एतस्मिन् पुत्रे विशिष्य आत्म-वेदनाम् अनुभवामि।

फिर भी मैं इस पुत्र में विशेषकर आत्मवेदना का अनुभव करती हूँ।

यतो हि अयमन्येभ्यो दुर्बलः।

यतः हि अयम् अन्येभ्यः दुर्बलः।

क्यों कि यह अन्यों से कमजोर है।

सर्वेष्वपत्येषु जननी तुल्यवत्सला एव।

सर्वेषु अपत्येषु जननी तुल्य-वत्सला एव।

सभी अपत्यों में जननी समान प्रेमभाववाली होती ही है।

तथापि दुर्बले सुते मातुः अभ्यधिका कृपा सहजैव” इति।

तथा अपि दुर्बले सुते मातुः अभ्यधिका कृपा सहजा  एव” इति।

तथापि दुर्बल पुत्र पर माता की अधिक ज्यादा कृपा सहज ही है”।

सुरभिवचनं श्रुत्वा भृशं विस्मितस्याखण्डलस्यापि हृदयमद्रवत्।

सुरभि-वचनं श्रुत्वा भृशं विस्मितस्य आखण्डलस्य अपि हृदयम् अद्रवत्।

गोमाता का वचन सुन कर बहुत ज्यादा चौंके हुए इन्द्र का भी हृदय द्रवीभूत हो गया।

स च तामेवमसान्त्वयत्-” गच्छ वत्से! सर्वं भद्रं जायेत।”

सः च ताम् एवम् असान्त्वयत्-” गच्छ वत्से! सर्वं भद्रं जायेत।”

और उन्हों ने उसे इस प्रकार से दिलासा दिया – “जाओ बेटा! सब कुछ मंगल हो जाए।”

अचिरादेव चण्डवातेन मेघरवैश्च सह प्रवर्षः समजायत।

अचिराद् एव चण्डवातेन मेघ-रवैः च सह प्रवर्षः समजायत।

शीघ्र ही प्रचण्ड हवा से और बादलों की आवाज से बारिश हुई।

लोकानां पश्यताम् एव सर्वत्र जलोपप्लव: सञ्जातः।

लोकानां पश्यताम् एव सर्वत्र जल-उपप्लव: सञ्जातः।

लोगों के देखते ही देखते सर्वत्र पानी का उत्पात हो गया।

कृषक: हर्षातिरेकेण कर्षणविमुखः सन् वृषभौ नीत्वा गृहमगात्।

कृषक: हर्ष-अतिरेकेण कर्षण-विमुखः सन् वृषभौ नीत्वा गृहम् अगात्।

किसान बहुत ज्यादा खुषी से जुताई से विमुख होकर बैलों को लेकर घर आ गया।

अपत्येषु च सर्वेषु जननी तुल्यवत्सला।
पुत्रे दीने तु सा माता कृपार्द्रहृदया भवेत्॥

अन्वय

जननी सर्वेषु च अपत्येषु तुल्यवत्सला (भवति)। (परन्तु) सा माता दीने पुत्रे तु कृपार्द्रहृदया भवेत्।

हिन्द्यर्थ –

माता सभी पुत्रों में समान प्रेमभाववाली होती है। लेकिन वह माता गरीब पुत्र पर तो कृपा से बहने वाले हृदय की होती है।

उपसंहार

इस प्रकार से हमने यथामति जननी तुल्यवत्सला इस पाठ का आकलन करने का प्रयत्न किया।

आप इस पाठ के बारे में क्या सोचते हैं? इस पाठ से आप को क्या सीख मिली?

जरा सोचिए

हमारे समाज में हमें भी बहुत से दुर्बल लोग बलवानों के द्वारा पीडित होते हुए दिखाई देते हैं। उनकी माताओं को इस से कितना दुख होता होगा?

हम उनके लिए क्या कर सकते हैं?

जिस प्रकार इन्द्र ने यथाशक्ति प्रयत्न किया। और उस दुर्बल प्राणी दुख (थोडे समय के लिए ही सही) दूर किया। हम हमारे समाज के अपनी शक्ति के अनुसार दुर्बलों का दुख दूर करने के लिए क्या क्या कर सकते हैं?

नीचे टिप्पणी जरूर करें।

धन्यवाद।

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