वैदिक साहित्य

पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त

पुरुरवा उर्वशी संवाद सूक्त ऋग्वेद (१०/९५) में पाया जाता है। इस सूक्त के ऋषि हैं – पुरुरवा ऐळ। तथा देवता – उर्वशी है और इस सूक्त का छन्द है – त्रिष्टुप्।

इस सूक्त में पुरुरवा और उर्वशी का संवाद है। परन्तु इस सूत्र को केवल कथा के रूप से नहीं देखना चाहिए। इस सूक्त के कुछ गूढ अर्थ भी हैं।

पुरुरवा और उर्वशी सूक्त के पीछे एक कहानी भी है, जिसे आप यहाँ पढ़ सकते हैं –

https://hi.wikipedia.org/wiki/पुरुरवा_उर्वशी_संवाद_सूक्त

परन्तु इस लेख में हम इस सूक्त के गूढ अर्थ पर चर्चा करेंगे।

पुरुरवा और उर्वशी इन शब्दों का अर्थ

रव शब्द का अर्थ होता है – ध्वनि, आवाज अथवा शब्द। और पुरु-रवा इस शब्द का अर्थ होता है – विपुल शब्दों वाला। यहाँ ‘शब्द’ ज्ञान का प्रतीक है। ये पुरुरवा इळापुत्र हैं। इळा का अर्थ होता है – लक्ष्मी अथवा सरस्वती।

इसी प्रकार उर्वशी इस शब्द की व्यत्पत्ति – उरु अभ्यश्नुते ऐसी दी गई है। उर इस शब्द का अर्थ हृदय होता है। अर्थात् हृदय के वश में रखने वाली। अथवा – उरु वशिनी

उर्वशी एक अप्सरा है। अर्थात् वह ब्रह्म से उत्पन्न तत्त्व – अप् से (यानी पानी से) उत्पन्न हुई है। तथा पुरुरवा कको हम बहुत शब्द करने वाला जीव भी मान सकते हैं। निरुक्त के अनुसार – प्राण एव हि पुरुरवा (१०।४।४७) यानी प्राण ही पुरुरवा है।

यह जीव / प्राण प्रकृति से समागम, सुखोपभोग करता है। और प्रकृति उसके साथ अपनी ही शर्तों पर जुड़ती है अथवा विलग होती है। प्रस्तुत सूक्त में भी पुरुरवा के साथ उर्वशी अपनी शर्तों पर जुड जाती है और बाद में शर्तें टूटने पर विलग हो जाती है। उस समय पुरुरवा बहुत व्याकुल हो कर उसे रोकने का प्रयत्न करते हैं।

ऋग्वेद से पुररवा उर्वशी संवाद सूक्त

हये जाये मनसा तिष्ठ घोरे वचांसि मिश्रा कृणवावहै नु
न नौ मन्त्रा अनुदितास एते मयस्करन्परतरे चनाहन्॥१॥

किमेता वाचा कृणवा तवाहं प्राक्रमिषमुषसामग्रियेव
पुरूरव: पुनरस्तं परेहि दुरापना वात इवाहमस्मि॥२॥

इषुर्न श्रिय इषुधेरसना गोषाः शतसा न रंहि:
अवीरे क्रतौ वि दविद्युतन्नोरा न मायुं चितयन्त धुनयः॥३॥

सा वसु दधती श्वशुराय वय उषो यदि वष्ट्यन्तिगृहात्
अस्तं ननक्षे यस्मिञ्चाकन्दिवा नक्तं श्नथिता वैतसेन॥४॥

त्रिः स्म माह्न: श्नथयो वैतसेनोत स्म मेऽव्यत्यै पृणासि
पुरूरवोऽनु ते केतमायं राजा मे वीर तन्व१स्तदासीः॥५॥

या सुजूर्णिः श्रेणि: सुम्नआपिर्ह्रदेचक्षुर्न ग्रन्थिनी चरण्युः
ता अञ्जयोऽरुणयो न सस्रुः श्रिये गावो न धेनवोऽनवन्त॥६॥

समस्मिञ्जायमान आसत ग्ना उतेमवर्धन्नद्य१: स्वगूर्ताः
महे यत्त्वा पुरूरवो रणायावर्धयन्दस्युहत्याय देवाः॥७॥

सचा यदासु जहतीष्वत्कममानुषीषु मानुषो निषेवे
अप स्म मत्तरसन्ती न भुज्युस्ता अत्रसन्रथस्पृशो नाश्वा:॥८॥

यदासु मर्तो अमृतासु निस्पृक्सं क्षोणीभि: क्रतुभिर्न पृङ्क्ते
ता आतयो न तन्व: शुम्भत स्वा अश्वासो न क्रीळयो दन्दशानाः॥९॥

विद्युन्न या पतन्ती दविद्योद्भरन्ती मे अप्या काम्यानि
जनिष्टो अपो नर्य: सुजात: प्रोर्वशी तिरत दीर्घमायु:॥१०॥

जज्ञिष इत्था गोपीथ्याय हि दधाथ तत्पुरूरवो म ओज:
अशासं त्वा विदुषी सस्मिन्नहन्न म आशृणो: किमभुग्वदासि॥११॥

कदा सूनुः पितरं जात इच्छाच्चक्रन्नाश्रु वर्तयद्विजानन्
को दम्पती समनसा वि यूयोदध यदग्निः श्वशुरेषु दीदयत्॥१२॥

प्रति ब्रवाणि वर्तयते अश्रु चक्रन्न क्रन्ददाध्ये शिवायै
प्र तत्ते हिनवा यत्ते अस्मे परेह्यस्तं नहि मूर माप:॥१३॥

सुदेवो अद्य प्रपतेदनावृत्परावतं परमां गन्तवा उ
अधा शयीत निॠतेरुपस्थेऽधैनं वृका रभसासो अद्युः॥१४॥

पुरूरवो मा मृथा मा प्र पप्तो मा त्वा वृकासो अशिवास उ क्षन्
न वै स्त्रैणानि सख्यानि सन्ति सालावृकाणां हृदयान्येता॥१५॥

यद्विरूपाचरं मर्त्येष्ववसं रात्री: शरदश्चतस्रः
घृतस्य स्तोकं सकृदह्न आश्नां तादेवेदं तातृपाणा चरामि॥१६॥

अन्तरिक्षप्रां रजसो विमानीमुप शिक्षाम्युर्वशीं वसिष्ठः
उप त्वा रातिः सुकृतस्य तिष्ठान्नि वर्तस्व हृदयं तप्यते मे॥१७॥

इति त्वा देवा इम आहुरैळ यथेमेतद्भवसि मृत्युबन्धुः
प्रजा ते देवान्हविषा यजाति स्वर्ग उ त्वमपि मादयासे॥१८॥

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