वैदिक साहित्य

वेदांग का परिचय

वैदिक साहित्य में वेदांग बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि वेदांग  वेदों को समझने के लिए जो शास्त्र आवश्यक होते हैं, उन को वेदांग कहते हैं।

वेदांग शब्द की व्युत्पत्ति

वेदस्य अङ्गानि इति वेदाङ्गः

अर्थात् वेद के अंग ही वेदांग हैं। अब पुनः प्रश्न है कि अंग किसे कहते हैं?

अङ्ग्यन्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अङ्गानि

अर्थात् जिनके द्वारा किसी वस्तु की जानकारी मिलती है, उसका स्वरूप पहचानने में सहायता मिलती है उन्हे अंग कहते हैं।

अब यहाँ हम वेद के अंग (वेदांग) कह रहे हैं यानी वेद की जानकारी पाने के लिए, उसका स्वरूप पहचानने के लिए जिनसे सहायता मिलती है वे ही वेदांग हैं।

वेदांग कितने हैं?

वेदांग छः हैं –

शिक्षा व्याकरणं छन्दो निरुक्तं ज्योतिषं तथा।
कल्पश्चेति षडङ्गानि वेदस्याहुर्मनीषिणः॥

पाणिनीय शिक्षा में वेदांगों का उल्लेख

पाणिनीय शिक्षा में वेद को एक साक्षात् मूर्तिमान् पुरुष मान कर छः वेदांगों को अलग अलग अवयव माना है।

छन्दः पादौ तु वेदस्य हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते।
ज्योतिषामयनं चक्षुर्निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते॥
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य मुखं व्याकरणं स्मृतम्।
तस्मात् साङ्गमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते॥

वेद रूपी पुरुष के शारीरिक अंग हैं –

  • पैर – छन्द
  • हाथ – कल्प
  • आँख – जोतिष्
  • कान – निरुक्त
  • नाक – शिक्षा
  • मुख – व्याकरण

वेदांगों का संक्षिप्त परिचय

अब हम एकैकशः छः वेदांगों का परिचय प्राप्त करते हैं।

शिक्षा

शिक्षा इस वेदांग को वेद की नाक माना है।

स्वर, व्यंजन आदि वर्णों के उच्चारण के विषय में शिक्षा ग्रन्थों में उपदेश मिलता है। प्राचीन शिक्षाग्रन्थ प्रातिशाख्यरूप में उपलब्ध हैं।

ऋग्वेद –

  • ऋक्प्रातिशाख्य

यजुर्वेद –

  • वाजसनेयिप्रातिशाख्य
  • तैत्तिरीयप्रातिशाख्य

अथर्ववेद –

  • अथर्ववेद प्रातिशाख्य

सामवेद –

  • पुष्पसूत्र प्रातिशाख्य

इनके अलावा पाणिनीय शिक्षा, भारद्वाजशिक्षा, याज्ञवल्क्यशिक्षा, मांडव्यशिक्षा, वाशिष्ठीशिक्षा आदि और भी अनेको शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध हैं।

पाणिनीय शिक्षा

महर्षि पाणिनी द्वारा प्रणीत शिक्षा पाणिनीय शिक्षा है। महर्षि पाणिनी व्याकरण के क्षेत्र में बहुप्रसिद्ध हैं। और इनकी पाणिनीय शिक्षा भी बहुप्रथित है।

कल्प

कल्प इस वेदांग को वेदपुरुष का हाथ माना है।

कल्प का अर्थ

कल्पो वेदविहितानां कर्मणाम् अनुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्।

अर्थात् वेदों के द्वारा विहित कर्मों का भली-भाँति विचार की कल्पना का शास्त्र कल्प कहलाता है।

कल्प्यन्ते समर्थ्यन्ते यज्ञयागादिप्रयोगाः यत्र इति कल्पः।

यज्ञयागादि क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण विवेचन जिन ग्रन्थ में किए जाते हैं उन को कल्प कहते हैं।

कल्पग्रन्थों का स्वरूप

कल्प ग्रन्थ छोटे छोटे सूत्रों में निबद्ध हैं। परन्तु वे छोटे छोटे सूत्रात्मक वाक्य अर्थ की दृष्टि से सारगर्भित हैं। अतः कल्पों को – कल्पसूत्र भी कहते हैं। कल्पसूत्रों को निम्न चार श्रेणियों में विभक्ति किया गया है –

  • श्रौतसूत्र
  • गृह्यसूत्र
  • धर्मसूत्र
  • शुल्बसूत्र

व्याकरण

व्याकरण को वेदपुरुष का मुख माना जाता है।

व्याकरण शब्द की व्याख्या

व्याक्रियन्ते व्युत्पाद्यन्ते शब्दाः अनेनेति व्याकरणम्।

अर्थात् जिस शास्त्र से शब्दों का प्रकृति-प्रत्यय के रूप विभाजन करके अर्थज्ञान किया जाता है तथा नवीन शब्दों की व्युत्पत्ति की जाती है उस को व्याकरण कहते हैं।

वोपदेव जी के मतानुसार व्याकरण के आठ संप्रदाय हैं –

इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः।
पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टादि शाब्दिकाः॥

व्याकरणशास्त्र में पाणिनीय व्याकरण अतिप्रसिद्ध है।

निरुक्त

निरुक्त इस वेदांग को वेदपुरुष के कान माना गया है।।

निरुक्त का अर्थ

अर्थावबोधे निरपेक्षतया पदजातं यत्रोक्तं तन्निरुक्तम्।

अर्थात् (वैदिक शब्दों के) अर्थ को समझने के लिए निरपेक्ष रीति से जिस ग्रन्थ में समझाया गया है वह निरुक्त है।

व्याकरण केवल शब्दों के मूल अर्थों की व्यत्पत्ति बताता है। परन्तु निरुक्त शब्दों का सन्दर्भ के साथ पारिभाषिक अर्थ की खोज करता है।

निरुक्त को व्याकरण का पूरक कहा जाता है।

वर्तमान समय में उपलब्ध निरुक्त

वस्तुतः दुर्गाचार्य ने अपने दुर्गावृत्ति में १४ निरुक्तकारों का उल्लेख किया है। परन्तु साम्प्रत काल में केवल एक ही निघण्टु उपलब्ध है। इस निघण्टु को लेकर महर्षि यास्क के द्वारा लिखित निरुक्त आज उपलब्ध है। परन्तु दुर्दैव से निघण्टु आज अनुपलब्ध है और उस पर लिखित भाष्य ही आज का निरुक्त है।

छन्द

छन्द इस वेदांग को वेदों के पैर कहा जाता है। वेदों का गायन करने के लिए उनको छन्दोबद्ध किया गया है। आप सामान्य भाषा में यह समझ सकते हैं की वेदों के गायन का ताल (ऱ्हिदम) छन्द है।

वैसे तो वैदिक और लौकिक छन्दों में अन्तर है। परन्तु चूँकि हम वेदांगों की बात कर रहे हैं, तो हम केवल वैदिक छन्दों की जानकारी लेंगे।

छन्द का अर्थ

महर्षि कात्यायन के अनुसार छन्द की व्याख्या

यदक्षरपरिमाणकं तच्छन्दः

अर्थात् जिस के द्वारा अक्षरों की गणना होती है वह छन्द है।

यानी वैदिक मन्त्रों की एक पंक्ति में समाविष्ट अक्षरों के आधार पर अलग-अलग छन्द बनाए गए हैं। इन छन्दों को अलग अलग ताल में गाया जाता है।

प्रमुख वैदिक छन्द

यूँ तो वेदों में अनेक छन्द हैं तथापि वेदों में प्रमुख सात छन्द हैं –

  • गायत्री
  • अनुष्टुप्
  • पंक्ति
  • बृहती
  • उष्णिक्
  • त्रिष्टुप्
  • जगति

ज्योतिष्

जोतिष् यह वेदांग वेदों की आँखें हैं।

ज्योतिषामयनं चक्षुः

तिथि, नक्षत्र, मास, ऋतु, संवत्सर इन का अध्ययन यज्ञ की सफलता के लिए आवश्यक है, जिसका अभ्यास ज्योतिष् में किया जाता है।

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