श्लोक

शुचिपर्यावरणम्। श्लोक १। CBSE कक्षा दशमी।

कक्षा दशमी। शेमुषी भाग २

श्लोक १

महानगरमध्ये चलदनिशं कालायसचक्रम्।
मनः शोषयत् तनुः पेषयद् भ्रमति सदा वक्रम्॥
दुर्दान्तैर्दशनैरमुना स्यान्नैव जनग्रसनम्। शुचि…॥१॥

वीडिओ

शुचिपर्यावरणम् – शोल

शब्दार्थ

  • महानगरमध्ये – बड़े बड़े शहरों में
  • चलत् – चलने वाला
  • अनिशम् – दिन-रात
  • कालायसचक्रम् – लोहे का चक्र
  • मनः – मन को
  • शोषयत् – सुखते हुए, सुखाने वाला
  • तनुः – शरीर को
  • पेषयत् – पीसते हुए
  • भ्रमति – घूमता है / घूम रहा है
  • सदा – हमेशा
  • वक्रम् – टेढा
  • दुर्दान्तैः – भयानक
  • दशनैः – दातों से
  • अमुना – इस
  • स्यात् – हो जाए
  • न – नहीं
  • एव – बिल्कुल
  • जनग्रसनम् – लोगों का भक्षण

अन्वय

महानगरमध्ये अनिशं चलत् कालायसचक्रं मनः शोषयत् तनुः (च) पेषयत् सदा वक्रम् भ्रमति। अमुना (चक्रेण) दुर्दान्तैः दशनैः (च) जनग्रसनं न एव स्यात्।
 

हिन्द्यर्थ

महानगरों में दिन-रात चलने वाला लोहे का चक्र मन को सुखाते हुए और शरीर को पीसते हुए हमेशा टेढ़ा घूम रहा है। कही इस चक्र से, उसके भयानक दातों से लोगों का ग्रास न हो जाए।
 

कालायसचक्रम्

अब इस श्लोक के तात्पर्य को समझने का प्रयत्न करते हैं। इस श्लोक में दिन-रात चलने वाले  लोहे के चक्र (कालायसचक्रम्) का ज़िक्र किया गया है। यह दिन-रात चलने वाला लोहे का चक्र हमारी वैज्ञानिक प्रगति, कारोबार तथा दौड़ती हुई गाड़ियों का प्रतीक है। प्रायः यह वैज्ञानिक प्रगति तथा कारोबार महानगरों में चलते हुए दिखते हैं। खास तौर पर शहरों की बात यहाँ हो रही है।
 

भ्रमति सदा वक्रम्

चक्र का काम है घूमना। परन्तु यह चक्र टेढा घूम रहा है। यह चक्र टेढा कैसे घूम सकता है? तात्पर्य यह है कि यदि कोई चक्र घूम रह है (अथवा हम घुमा रहे हैं) तो उसे उस दिशा में गति करनी चाहिए जहाँ हम चाहते हैं। अगर वह चक्र विपरीत दिशा में हमे ले जाता है तो वह उसकी टेढी चाल कहलाती है।
 
 
 
हम जानते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति तथा कारोबार मनुष्य के सुखी जीवन के लिए बनाए गए हैं। तथापि हम आज देख सकते हैं कि वैज्ञानिक प्रगति तथा कारोबार से तात्कालिक सुख और सुविधा तो हुई किन्तु आज हम देख सकते हैं कि इसी वजह से हम ज़्यादा दुखी होते जा रहे हैं। यहाँ तक की हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं वह पृथ्वी ही ख़तरे में है। और इसका एक ही कारण है – वैज्ञानिक प्रगति तथा कारोबार। ये इंसानी गतिविधियाँ हम सभी के लिए घातक सिद्ध हो रही है।
 
इसीलिए कवि कहते हैं कि यह लोहे का चक्र टेढा घूम रहा है।
 
 
 
 

मनः शोषयत् तनुः पेषयत्

यह चक्र टेढा घूम रहा है। लेकिन यह मन को सुखाते हुए और तन (शरीर) को पीसते हुए जा रहा है। अर्थात् आज हम जातने हैं कि महानगरों में इतनी भीड़ हो रही है कि मनुष्य को मनुष्य की परवाह नहीं रही। हर तरफ़ भागदौड़ है। हम अपने-अपने कामों में इतने मग्न हो चुके हैं कि हमारा एक परिवार है, हमारे मित्र हैं, संबंधी हैं इन सभी को हम भूलते जा रहे हैं। हमारा मन अपने लोगों के प्रति सूख रहा है। मुझे याद है कि हमारे बचपन में हम अपने मामा, मौसी के घर महीनों बिताते थे। लेकिन अब यह मुमकिन नहीं है। पहले परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची,  एकत्र रहते थे। आजकल तो बस पति-पत्नी और बच्चें। इतना ही पर्याप्त होता है। यानी आज के वक्त हमारा मन अपनों के लिए धीरे धीरे सूखता जा रहा है। हालांकि यह बात अब हमें ज्यादा गंभीर नहीं लगेगी। क्योंकि जिन लोगों ने वह दिन नहीं देखे हैं उन्हे इस बात का एहसास नहीं हो सकता।
 
साथ ही साथ हमारा शरीर भी अधिक से अधिक कमजोर होता जा रहा है। इसका मतलब साफ़ है कि यह वैज्ञानिक तथा औद्योगिक प्रगति हमारे शरीर के लिए बहुत हानिकारक सिद्ध हो रही है। जब हमारे पूर्वज प्रकृति के साथ प्राकृतिक तरीके से जीवन व्यतीत करते थे, तब उनके शरीर हम से अधिक मज़बूत थे। मेरी अपनी ही एक बात बताता हूँ – मेरे दादाजी दोनों हाथों से एक-एक क्विंटल की (कुल मिला कर एक बार में दो) बोरियाँ उठाते थे। उनके बाद मेरे पिताजी को एक ही क्विंटल की बोरी उठाने के लिए दोनों हाथ लगाने पड़ते हैं। और अब मैं। मैं पचास किलो का भी बोझ नहीं उठा सकता हूँ। देखिए यह बहुत डरावनी बात है कि केवल तीन पीढ़ियों में ही इतनी बड़ी गिरावट हो जाती है। आगे कैसे होगा?
 
मतलब स्पष्ट है कि आजकल जो कारनामें हम कर रहे हैं उनकी वजह से जो आजकल जो हमारी सभ्यता (धीरे धीरे) बन रही है उस में मानवीय भावनाओं को कोई स्थान नहीं है। मन सूखता जा रहा है। कालायसचक्रं मनः शोषयत् भ्रमति। और जिस तरह से मानवीय शरीर भी कमज़ोर होता जा रहा है वह इस बात को बताता है कि हमारा शरीर पीसता जा रहा है। कालायसचक्रं तनुः पेषयत् भ्रमति।
 

दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनम्

जब किसी यन्त्रशाला (Factory) में चक्र घूमता है, तो उसके कराल (दुर्दान्त) दांतों का दर्शन हमें हो जाता है। आज यह कराल दांत यन्त्रों में चल रहे हैं। लेकिन इस औद्योगिक प्रगति के चलते पर्यावरण तथा मानवता को जो हानि हो रही है उसे देखते हुए यह महसूस होता है कि दांतों के नीचे मनुष्य ही चबाए जा रहे हैं। और ऐसा नहीं होना चाहिए इसीलिए कवि कहते हैं – दुर्दान्तैः दशनैः जनग्रसनं न स्यात्। यानी इन भयानक दांतों से लोगों का ही ग्रास नहीं होना चाहिए।
 
 
 

भावार्थ

साम्प्रतं महानगरेषु यन्त्रशालाः कुशलतया चलन्ति, यानानि वेगेन धावन्ति। तथापि तेन मनुष्यजीवनं सुखमयं न जातम्। नवीने जीवने सदैव मनसः शोषणं, शरीरस्य च पेषणं भवति। कविः चिन्तयति अनेन चक्रेण, तस्य च भयकारिभिः दन्तैः मनुष्याणां भक्षणं न भवेत्। अतः कविः शुद्धपर्यावरणस्य शरणं स्वीकरणीयम् इति वदति। 
 

हिन्द्यर्थ

आजकल महानगरों में कारखानों में कुशलतासे काम होते हैं, तेज़ी से गाड़ियाँ दोड़ रही हैं। फिर भी हमारा मानवीय जीवन सुखी नहीं है। इस नई सभ्यता में मन का शोषण हो रहा है और हमारा शरीर पीसा जा रहा है। कवि सोचते हैं कि कही इसी तरक्की के चक्र से, उसके भयकारी दांतों से मनुष्यों का ही भक्षण ना हो जाए।
 
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व्याकरण

सन्धिः

चलतदनिशम्

 

पेषयद् भ्रमति

दुर्दान्तैर्दशनैरमुना

स्यान्नैव

 

समासः

महानगरमध्ये
  • महत् च तत् नगरम् महानगरम्
    – कर्मधारयः।
  • महानगराणां मध्ये
    – षष्ठी तत्पुरुषः।

कालायसचक्रम्

  • कालायसस्य चक्रम्
    – षष्ठी तत्पुरुषः।
जनग्रसनम्
  • जनानां ग्रसनम्
    – षष्ठी तत्पुरुषः।
 

प्रत्ययः

 
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