श्लोक

शुचिपर्यावरणम्। श्लोक ७। प्रस्तरतले तलातरुगुल्मा। Class 10 CBSE संस्कृतम्

प्रस्तरतले लतातरुगुल्मा नो भवन्तु पिष्टाः।
पाषाणी सभ्यता निसर्गे स्यान्न समाविष्टा॥
मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्।
शुचिपर्यावरणम् …॥७॥

शब्दार्थः

  • प्रस्तरतले – पाषाणस्य अधः। पत्थर के नीचे
  • लतातरुगुल्माः – लताएं, पेड़ और झाड़ियाँ
  • नो – नहीं
  • भवन्तु – होवे
  • पिष्टाः – चूर्ण
  • पाषाणी – पथरीली
  • सभ्यता – संस्कृति
  • निसर्गे – प्रकृतौ। कुदरत में
  • स्यान् – हो जाए
  • न – नहीं
  • समाविष्टा – शामिल
  • मानवाय – मनुष्याय। इन्सानों के लिए
  • जीवनम् – ज़िंदगी
  • कामये – चाहता हूँ
  • नो – नहीं
  • जीवत् – जीते जी
  • मरणम् – मृत्युः।

अन्वय

लतातरुगुल्माः प्रस्तरतले पिष्टाः नो भवन्तु। पाषाणी सभ्यता निसर्गे समाविष्टा न स्यात्। (अहं) मानवाय जीवनं कामये, नो जीवत् मरणम्।

हिन्दी अनुवाद

लताएं, पेड़ और झाड़ियाँ पत्थर के नीचे कही पीस ना जाए। यह पथरीली सभ्यता प्रकृति में शामिल ना हो जाए। मैं मनुष्य के लिए जीवन चाहता हूँ, जीते जी मृत्यु नहीं।

भावार्थ

यह शुचिपर्यावरणम् इस कविता का अन्तिम श्लोक है। इस श्लोक में कवि प्रार्थना करते हैं कि कही ये लताएं, पेड़ और झाड़ियाँ यानी कुल मिलाकर पूरा जंगल तथा यह सुन्दर पत्थरों के नीचे पीस ना जाए।

पत्थरों के नीचे इस का तात्पर्य आधुनिक विकास से है। आज हम देख सकते हैं की जनसंख्या बढने के कारण जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं। यानी शहरों का आकार जिस तरह से बढ़ रहा है उसी प्रकार नई ईमारते बसाने के लिए पेड़ काट कर ईमारतों की नीव रखी जाती है। 

हमारे कवि कहते हैं कि इस तरह से मानव विकास के लिए वनों का नाश नहीं होना चाहिए।  

shuchiparyavaranam
पाषाणी सभ्यता

और हम देख सकते हैं कि हर तरफ ईमारतें  बन रही है। अर्थात् हमारी सारी सभ्यता पथरीली हो रही है। पहले ज़माने में हमारी सभ्यता प्राकृतिक रीति से चलती थी। हम मनुष्य प्रकृति के साथ मिल जुल कर रहते थे। लेकिन आज कुछ कुछ लोगों की पूरी जिन्दगी शहरों में निकल जाती है। और कभी खुले जंगल में घूमना उनके भाग्य में होता ही नहीं है।

यह किस बात का लक्षण है? कही हमारी यह पथरीली सभ्यता तो प्रकृति में शामिल नहीं हो रही है ना?

इस तरह से प्रकृति के बारे में चिन्ता करते हुए कवि अन्त में प्रार्थना करते हैं। कवि कामना करते हैं कि मनुष्य को जीवन मिले। मनुष्य को जीते जी मृत्यु किसी काम की नहीं है।

जीवन्मरणम्

इन पदों का दो तरह से समासविग्रह किया जा सकता है।
१) जीवत् मरणम्। (कर्मधारय)
– जीते जी मौत
२) जीवते मरणम्। (चतुर्थी तत्पुरुष)
जीवित मनुष्य के लिए मौत

शहरों में मनुष्य जीवन तो अवश्य जीता है। लेकिन वह जीवन भी कैसा जो प्रकृति से दूर हो? वह जीवन भी क्या काम का जो भिन्न-भिन्न रोगों से ग्रस्त हो? वह तो जीते जी मृत्यु है अथवा जीवित मनुष्य के लिए मृत्यु समान है। इसीलिए कवि कहते हैं – 

मानवाय जीवनं कामये नो जीवन्मरणम्

इस प्रकार से हम ने शुचिपर्यावरणम् इस सुन्दर कविता का अध्ययन करने का प्रयत्न किया है। इस कविता के सात श्लोक हमने पढ़ लिए है। इस कविता ने हमें पर्यावरण के बारे में जागृत करने का प्रयास किया है। वस्तुतः हम शहरों की गंदगी में, शोर में, जहरीली हवा में जो जीवन जी रहेे हैं वहा तो जीवन ही नहीं है वह तो जीते जी मौत ही है। और यदि मनुष्य वास्तविक जीवन चाहते हैं तो हमारे लिए ज़रूरी है –

शुचिपर्यावरणम्

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संस्कृत भावार्थ

शिलाखण्डानाम् अधः अर्थात् मानवविकासकार्येण लताः वृक्षाः गुल्माः च नष्टाः न भवन्तु। अर्थात् भवननिर्माणं वनं नष्टं कृत्वा न भवतु। कविः मानवस्य वास्तविकं जीवनम् इच्छति। जीवतः मनुष्यस्य मरणं मा भवेत् इति अपि कविः चिन्तयति।

व्याकरणम्

सन्धि

लतातरुगुल्मा नो
स्यान्न
जीवन्मरणम्
  • जीवत् + मरणम्
  • अनुनासिकत्वम्

समास

प्रस्तरतले

  • प्रस्तरस्य तले / प्रस्तराणां तले
  • षष्ठीतत्पुरुषः

लतातरुगुल्माः

जीवन्मरणम्
  • जीवत् च तत् मरणम्
  • कर्मधारय
    • अथवा
  • जीवते मरणम्
  • चतुर्थीतत्पुरुषः

प्रत्यय

  • पिष्टाः – पिष् + क्त
  • सभ्यता – सभ्य + तल्
  • समाविष्टा – सम् + आ + विश् + क्त + तल्
  • जीवत् – जीव् + शतृँ (नपुंसक॰)

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