साहित्य सङ्गीत कला विहीनः। संस्कृत श्लोक का हिन्दी अनुवाद
कुछ ऐसे भी गद्य लोग होते हैं जिनको ना तो कोई गाना सुनना पसन्द है, ना कोई चित्र उन के दिल को बहला सकता है। सिर्फ रात दिन काम काम और काम ही करते रहते हैं और बस पैसा कमाते हैं। उनके लिए तो मानो जीवन की सारी खुशियाँ पैसा जमा कर के अपनी तिजोरी की रखवाली करने में ही होती हैं।
मनुष्य को प्रकृति ने कला का आस्वाद करने की भरपूर क्षमता दी है। यह बाकी पशुओं में कम ही होती है। और जो व्यक्ति मनुष्य होकर भी किसी कला में दिलचस्पी ना लेता हो, तो वह तो पशुओं जैसा ही है।
इस विषय में संस्कृत सुभाषितकार कहते हैं –
श्लोक
साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः।
तृणं न खादन्नपि जीवमानः तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥
श्लोक का अंग्रेजी (रोमन) लिप्यन्तरण
sāhityasaṅgītakalāvihīnaḥ sākṣātpaśuḥ pucchaviṣāṇahīnaḥ|
tṛṇaṃ na khādannapi jīvamānaḥ tadbhāgadheyaṃ paramaṃ paśūnām||
इस श्लोक के दोनों पंक्तियों को हम एक एक कर के पढ़ेगे।
श्लोक की पहली पंक्ति का पदविभाग
साहित्य-सङ्गीत-कला-विहीनः साक्षात् पशुः पुच्छ-विषाण-हीनः।
पहली पंक्ति का शब्दार्थ –
- साहित्यम् – वाङ्मय। कथा, कादम्बरी, कविता इत्यादि।
- संगीतम् – गायन, वादन तथा नृत्य
- कला – वैसे तो साहित्य और संगीत भी ललित कलाएँ हैं। परन्तु यहाँ पर चित्रशिल्पादि कला ऐसा अर्थ लेना चाहिए।
- विहीनः – जिसके पास नहीं है
- साक्षात् – प्रत्यक्ष, ठीक ठीक, वस्तुतः
- पशुः – जानवर
- पुच्छ – दुम, पूंछ
- विषाण – सींग
- हीनः – जिसके पास नहीं है / ….. के बगैर
अन्वय
(यः) साहित्यसङ्गीतकलाविहीनः (अस्ति, सः) साक्षात् पुच्छविषाणहीनः पशुः (एव अस्ति)।
हिन्दी अनुवाद
जो साहित्य संगीत तथा कला से विहीन है वह तो साक्षात बगैर पूंछ और सिंगो वाला जानवर ही है।
विश्लेषण
अगर देखा जाए तो इस संसार के सारे पशुओं में से केवल मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो हंस सकता है, खुशियां मना सकता है, किसी अच्छे गीत को सुनकर अथवा किसी सुंदर चित्र को देखकर या कोई अच्छी कहानी सुनकर मनुष्य प्राणी प्रफुल्लित हो सकता है। परंतु कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जिन्हें इन कलाओं से कोई लेना देना नहीं होता है।
खाना, पीना, डरना, सोना और अपना परिवार बढ़ाना ये काम तो पशु भी कर लेते हैं। और अगर हम इंसान भी केवल यही काम करते रहे, तो हमने और अन्य जानवरों में अंतर ही नहीं रहेगा। बस एक चीज है जो हमें और अन्य पशुओं में भेद बनाती है। और वह है साहित्य, संगीत और कला। इन चीजों का रसपान पशु नहीं कर सकते हैं। केवल मनुष्य कर सकते हैं।

इसीलिए हमारे सुभाषित कार कहते हैं कि जो मनुष्य केवल पैसा कमाने के पीछे लगा रहता है हाथ खाना-पीना सोना और अपना परिवार बढ़ाना यही उसके लिए जीवन का मतलब होता है वह इंसान तो बिना सींग और पूंछ वाला जानवर ही तो है।
अब हम श्लोक की दूसरी पंक्ति पर विचार करते हैं।
श्लोक की दूसरी पंक्ति का पदविभाग
तृणं न खादन् अपि जीवमानः तद् भागधेयं परमं पशूनाम्॥२॥
शब्दार्थ
- तृणम् – घास (द्वि॰)
- न – नहीं (अव्य॰)
- खादन् – खाते हुए (खाद् + शतृ)
- अपि – भी (अव्य॰)
- जीवमानः – जीने वाला (जीव् + शानच्)
- तद् – वह (सर्वनाम)
- भागधेयम् – सौभाग्य, खुशकिस्मती
- परमम् – बहुत बडा
- पशूनाम् – पशुओँ का (ष॰)
अन्वय
(सः मनुष्यः) तृणं न खादन् अपि जीवमानः तद् (तु) पशूनां परमं भागधेयम (अस्ति)।
हिन्दी अनुवाद
वह मनुष्य घास न खाते हुए भी जीता है, यह तो पशुओं का बहुत बड़ा भाग्य ही है।
इस पंक्ति में सुभाषितकार उस पत्थर दिल इंसान का उपहास कर रहे हैं। पहली पंक्ति में तो उसे बगैर सींग और पूंछ वाला पशु कहा। अब तो यह अन्य पशुओं का भाग्य है कि यह पशु जैसा इंसान बगैर घास खाए जीता है।( क्योंकि अगर वह भी घास खाकर जीने लगेगा, तो पशुओं को परेशानी होने लगेंगी। उनके भोजन में एक हिस्सेदार बढ़ जाएगा।)
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Lahar
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