श्लोक

१०.०३ व्यायामः सर्वदा पथ्यः। ०२. व्यायाम के लाभ। जठराग्नि। लाघवचिह्न।

पाठ ३. व्यायामः सर्वदा पथ्यः।

द्वितीयः श्लोकः। कक्षा दशमी।

शरीरोपचयः कान्तिर्गात्राणां सुविभक्तता।
दीप्ताग्नित्वमनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा॥२॥

शब्दार्थ – 

  • शरीर – देह, काया
  • उपचय – वृद्धि होना, समृद्ध होना, इकठ्ठा होना
  • कान्तिः – दीप्ति, चमक
  • गात्राणाम् – गात्रों की, (गात्र – शरीर के अंग, अवयव)
  • सुविभक्तता –  सौष्ठव, उत्तमता, सुडौल होना, समान रूप से विकास
  • दीप्ताग्नित्वम् – अग्नि का प्रज्वलित होना, जठराग्नि का प्रज्वलित रहना, अच्छी भूख लगना
  • अनालस्यम् – आलस ना होना, फूर्तीला होना
  • स्थिरत्वम् – स्थिरता, विकृति का ना होना
  • लाघवम् – हल्कापन, लचीलापन
  • मृजा – स्वच्छता, नीरोगता, वात कफ पित्त इत्यादि का संतुलन
अन्वय – 

(व्यायामात्)  शरीरोपचयः कान्तिः गात्राणां सुविभक्तता दीप्ताग्नित्वम् अनालस्यं स्थिरत्वं लाघवं मृजा (च उपजायते)

व्यायाम से शरीर की वृद्धि, चमक, शारीरिक अंगों की सुडोलता, जठराग्नि की प्रबलता, आलस का अभाव (यानी फुर्तीलापन), स्थिरता (कोई विकृति ना होना), हल्कापन और नीरोगता (मनुष्य को) प्राप्त होते हैं।

वैसे अगर देखा जाए तो इस श्लोक में केवल शरीरोपच, कान्ति वगैरह गुणों के नाम ही हैं। ये गुण कैसे मिलते हैं या नहीं मिलते हैं अथवा इन नामों से हमें क्या समझना है इत्यादि के बारे में कोई जानकारी प्रस्तुत श्लोक में नहीं है। इस के बाद वाला श्लोक यदि हम पढेगे तब हम पूरी संगति लग जाती है। इस श्लोक के अन्वय में दो शब्द कंस में लिखे हैं – व्यायामात् और उपजायते। ये शब्द भी अगले वाले श्लोक से हैं। अगले श्लोक में और भी कुछ ऐसे ही शरीरोपचयः कान्ति इत्यादि जैसे अन्य गुण बताकर अन्त में बताया है कि ये सब व्यायाम से उत्पन्न होते हैं। तब जा कर हमें पूरी संगति लग जाती है। तो इस अर्थ से देखा जाए तो यह श्लोक अपूर्ण है।
यानी दोनों श्लोकों को एकसाथ पढना पडता है।
दीप्ताग्नित्वम् – दीप्त यानी प्रज्वलित, प्रकाशमान। और अग्नि यानी आग। तथा दीप्ताग्नित्वम् यानि आग का जलना। अब इस कविता में किस आग को शरीर में जलाया जा रहा है? यह प्रश्न उठता है।
इसका उत्तर बहुत आसाना है। यह अग्नि है – जठराग्नि। यहां जठर इस शब्द का अर्थ है पेट। पेट में वैसे देखा जाए तो कोई आग तो नहीं होती है। परन्तु कुछ ऐसे रसायन होते हैं जिनका परिणाम उष्ण (गर्म) होता है। और इन में प्रमुख रसायन है HCl – हायड्रोक्लोरिक आम्ल। यह जठराग्नि इतनी होती है कि यदि उसे किसी लोहे जैसे धातु पर भी गिराया जाएं तो उसे भी यह पिघला सकती है। परन्तु इसके बावजूद भी यह हमारे पेट में सुरक्षित होती है।
यह जठराग्नि ही हमें भूखे होने का अहसास दिलाती है। यदि जठराग्नि कमजोर पड जाए तो हमें भूख कम लगती है और स्वास्थ्य खराब होता है।
इस जठराग्नि के लिए ही हमें हमेशा वैद्य लोगों से सलाह मिलती रहती है कि भोजन के बाद पानी नहीं पीना चाहिए। क्योंकि भोजन को हजम करने के लिए उष्णता की आवश्यकता होती है। जठराग्नि के प्रदीप्त होने की आवश्यकता होती है। परन्तु हम भोजन के बाद एक प्याला पानी तो पीते ही हैं।  (आजकल तो ठंडा फ्रिज का पानी पिया जाता है। वह तो साक्षात् जहर ही है।) इससे जठर की अग्नि ठंडी पड जाती है।
लाघवम् – वैसे अगर देखा जाए तो लाघव इस शब्द का अर्थ है – छोटा होना। यह शब्द लघु इस शब्द से बना है। लघु का अर्थ होता है छोटा। इसका विरुद्धार्थी शब्द हौ गौरव (बडप्पन)। गुरु – गौरव। लघु – लाघव।
यहाँ इस श्लोक में लाघव का अर्थ हल्कापन यह हो सकता है।
एक लाघवचिह्न नाम का चिह्न भी प्रसिद्ध है जो कुछ इस प्रकार दिखता है – ॰। यह लाघवचिह्न किसी भी नाम वगैरह का संक्षिप्त रूप (Short Form) लिखने के लिए प्रयुक्त होता है। जैसे कि किसी का नाम – श्री॰ मुकेशचन्द्र। यहाँ श्री॰ का अर्थ है श्रीमान्। परन्तु उसे संक्षेप से लिखने हेतु ॰ इस लाघव चिह्न का प्रयोग होता है। अब इस चिह्न की परेशानी यह है कि यह कुंजीपटल (keyboard) पर कहाँ होता है यह बाता ज्यादातर लोग नहीं जानते अतः इसके स्थान पर अंग्रेजी पूर्णविराम, यानी – . इस चिह्न को ही लिख देते हैं। जैसे – श्री. मुकेशचन्द्र। परन्तु इन दोनों चिह्नों में अन्तर हैं। और तो और कुछ लोग इस लाघवचिह्न को शून्य समझकर इसके स्थान पर शून्य का भी प्रयोग कर देते हैं। जैसे – श्री० मुकेशचन्द्र।
लाघवचिह्न – ॰
अंग्रेजी पूर्णविराम – .
अब प्रश्न है कि लाघवचिह्न कुंजीपटल पर कहाँ मिलता है? यदि आप इन्-स्क्रिप्ट कीबोर्ड पर टाईप कर रहे हैं तो AltGr + , (यानी दायी अल्ट और कॉमा एकसाथ) इस संयोग से लाघवचिह्न लिख सकते हैं।
अथवा इसका यूनिकोड संकेत भी है। किसी भी वर्ड प्रोसेसर में 0907 ऐसा लिखने के बाद Alt + X ऐसी कुंजियाँ दबाने से भी लाघवचिह्न लाया जा सकता है।
लाघवचिह्न के इस विवेचन से हमें बस इतना समझना है कि लाघव का अर्थ है छोटापन। परन्तु इस श्लोक में इसका अर्थ शरीर में हल्कापन हो सकता है।

भावार्थ – 

व्यायामेन शरीरस्य वृद्धिः भवति। शरीरं कान्तिमत् भवति। शरीरस्य सौष्ठवं च भवति। व्यायमकारणेन जठराग्निः प्रदीप्तः भवति। व्यायमेन शरीरे आलस्य न भवति। स्थैर्यं भवति। उत्साहः वर्धते। अपि च व्यायामकारणेन शरीरस्य नीरोगता अपि भवति। यदि मनु्ष्यः व्यायाम करोति तर्हि इत्यादः लाभाः भवन्ति।

भावर्थस्य हिन्द्यर्थः
व्यायाम से शरीर की वृद्धि होती है। शरीर चमकदार होता है। शरीर सुष्ठ होता है। व्यायाम के कारण से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। व्यायाम से शरीर में आलस नहीं होता है। शरीर स्थिर होता है। उत्साह बढता है। और तो और व्यायाम से शरीर नीरोग होता है। यदि मनुष्य व्यायाम करता है तो ऐसे लाभ होते हैं।

व्याकरणम् – 

  • शरीरोपचयः
    • सन्धिः – शरीर + उपचयः। इति गुणसन्धिः।
    • समासः – शरीरस्य उपचयः। इत षष्ठीतत्पुरुषः।
  • कान्तिर्गात्राणाम् – कान्तिः + गात्राणाम्। इति रुत्वसन्धिः।
  • सुविभक्तता –
    •  सुविभक्त + तल्। इति प्रकृतिप्रत्ययौ।
  • दीप्ताग्नित्वम् 
    • दीप्त + अग्नित्वम्। इति गुणसन्धिः।
    • दीप्ताग्नि + त्व। इति प्रकृतिप्रत्ययौ।
  • अनालस्यम् – न आलस्यम्। इति नञ्-तत्पुरुषः।
  • स्थिरत्वम् – स्थिर + त्व। इति प्रकृतिप्रत्ययौ।
जठराग्नि के बारे में जानकारी के लिए इस ब्लॉग पर जा सकते हैं।

    Leave a Reply