सूक्तयः – कक्षा 10 अनुवाद। Suktayah – Class 10 Translation
सूक्तयः (Suktayah) यह संस्कृत पाठ CBSE बोर्ड में निर्धारित पाठ्यपुस्तक शेमुषी (NCERT) में है।
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१०.०९ सूक्तयः। ०१. पिता यच्छति पुत्राय
०९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी। सर्वप्रथम पाठ का शीर्षक समझते हैं। पाठ का शीर्षक है – सूक्तयः। इसका विच्छेद ऐसे हो सकता है – सु + उक्तयः। इन दोनों शब्दों के सन्धि में सवर्णदीर्घ हो कर सूक्तयः ऐसा शब्द बन जाता है। सु – सु एक २२ प्रादि उपसर्गों में से एक है। और इसका अर्थ है – अच्छा। जैसे की हमने इन शब्दों में देखा है – सुविचार = अच्छा विचार। सुरस = अच्छा रस। उक्तयः – यह शब्द उक्तिः इस शब्द का बहुवचन हैं। उक्तिः – उक्ती – उक्तयः॥ उक्तयः यानी बातें। कुल मिलाकर सु + उक्तयः – सूक्तयः। सूक्तयः यानी अच्छी बातें। हमारे लिए लाभकारी बातें। जिन वाक्यों को सुनकर हमारी कोई भलाई हो वे बातें। प्रथमः श्लोकः पिता यच्छति पुत्राय बाल्ये विद्याधनं महत्। पिताऽस्य किंं तपस्तेपे इत्युक्तिस्तत्कृतज्ञता॥१॥ English (Roman) Transliteration (IAST) pitā yacchati putrāya bālye vidyādhanaṃ mahat|pitā’sya kiṃṃ tapastepe ityuktistatkṛtajñatā||1|| श्लोक का वीडिओ इस वीडिओ में श्लोक के तात्पर्य को विस्तार से समझाया है। शब्दार्थ पिता – जनकः। यच्छति – ददाति। देता है (दा धातु) पुत्राय – सुताय। आत्मजाय। बेटे को बाल्ये – बाल्यकाले। बाल्ये वयसि। बचपन में विद्याधनम् – विद्या-रुप-धनम्। विद्या रूपी धन महत् – अधिकम्। बृहत्। महत्त्वपूर्णम्। बहुत ज्यादा। बहुत बड़ा पिता – पिता ने अस्य – इस के (इस बालक के) किम् – क्या (यहां – कितनी, कौनसी) तपः – तपस्याम्। तपस्या तेपे – तपस्या की है। आचरण किया है। इति – ऐसा / ऐसी उक्तिः – वाक्यम्। बात तत्कृतज्ञता – तस्य (बालकस्य) कृतज्ञता। उस (बेटे की पिताजी के प्रति) कृतज्ञता है अन्वय पिता पुत्राय बाल्ये महत् विद्याधनं यच्छति। अस्यय (पुत्रस्य) पिता किं तपः तेपे इति (जनानाम्) उक्तिः तत्कृतज्ञता॥ श्लोक का हिन्दी अनुवाद पिता पुत्र को बचपन में बहुत विद्यारूपी धन देता है। (उस पुत्र को देख कर) – इस के पिता ने कितनी तपस्या की है (कि इतन अच्छा पुत्र प्राप्त हुआ) ऐसी लोगों की बात ही पुत्र की अपने पिता के लिए कृतज्ञता है। श्लोक का स्पष्टीकरण हम आजकल देखते हैं कि आजकल माता पिता दोनों भी कही ना कही नौकरी करते हैं और अपने बच्चों की पढाई की तरफ ठीक से ध्यान नहीं दे पाते। परन्तु यदि किसी पिता ने अपने बेटे को बचपन में ही बहुत सी विद्या, ज्ञान दे दिया तो आगे भविष्य में उस बच्चे की कीर्ति पूरे समाज में होगी। और ऐसे ज्ञानवान्, गुणवान् बच्चे को देखकर लोग के मुंह से आश्चर्य से ऐसी बात निकलनी चाहिए कि – इसके पिता ने कितनी तपस्या की है कि उन्हे इतना अच्छा गुणवान् पुत्र प्राप्त हुआ। और बेटे ने भी इसी प्रकार अपने ज्ञान से अपने पिता का नाम रोशन किया तो वही बात उस बेटे की अपने पिता के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी। आजकल हम देखते हैं कि पिता अपने बेटे को केवल धन और सम्पत्ति ही देते हैं। परन्तु हमारे कवि कहते हैं कि पिता को बचपन में ही अपने पुत्रों के ज्ञान देना चाहिए। यहां पर कवि ने विद्या को ही धन कहा है। अपने पुत्रों के धन तो सभी पिता देते हैं। परन्तु ज्ञान रूपी धन देना सबसे महत्त्वपूर्ण है। और यदि किसी पुत्र के सौभाग्य से उसके पिता ने अपने बेटे को ज्ञान देना चाहा भी, लेकिन वह पुत्र यदि निकम्मा निकल जाए तो? उस पुत्र ने अपने पिता से प्राप्त ज्ञान का अनुचित उपयोग किया तो? उस पिता का अपने पुत्र को ज्ञान देकर भी क्या फायदा? इसीलिए अपने पिता से ज्ञान पा कर पुत्र का भी कर्तव्य बनात है कि उस ज्ञान का सही उपयोग कर के अपनी कीर्ति बढाए। उस का अच्छा बरतवा देख कर लोग उस बालक की तो स्तुति करेंगे ही, परन्तु उसके साथ उसके पिता का भी गौरव करेगे। और यही बात उस पुत्र की अपने पिता के प्रति सच्ची कृतज्ञता होगी। पिता अस्य किं तपः तेपे? लोग जब ऐसी बात करेंगे तो ऐसी बात को सुन कर उसके पिता धन्य हो जाएगे। व्याकरण पिताऽस्य – पिता + अस्य। सवर्णदीर्घः। तपस्तेपे – तपः + तेपे। सत्वम्। इत्युक्तिः – इति + उक्तिः। यण्। उक्तिस्तत्कृतज्ञता – उक्तिः + तत्कृतज्ञता। सत्वम्। तत्कृतज्ञता – तस्य कृतज्ञता। षष्ठीतत्पुरुषः। 10.09. सूक्तयः इस पाठ से अन्य सभी श्लोक पढ़ने के लिए
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१०.०९ सूक्तयः। ०३. त्यक्त्वा धर्मप्रदां वाचम्
३. सूक्तयः कक्षा दशमी। शेमुषी तृतीया सूक्तिः त्यक्त्वा धर्मप्रदां वाचं परुषां योऽभ्युदीरयेत्।परित्यज्य फलं पक्वं भुङ्क्तेऽपक्वं विमूढधीः॥३॥ शब्दार्थः – त्यक्त्वा – त्यागं कृत्वा। परित्यज्य। छोडकर धर्मप्रदाम् – धर्म का ज्ञान देने वाली वाचम् – वाणीम्। बात को परुषाम् – कटुवाक्यानि। कठोरां वाणीम्। कठोर बातों को यः – जो अभ्युदीरयेत् – कथयेत्। वदेत्। बोले परित्यज्य – त्यक्त्वा। छोडकर फलम् – फल को पक्वम् – पके हुए भुङ्क्ते – खादति। गृह्णाति। खाता है अपक्वम् – कच्चे (फल को) विमूढधीः – मूर्खः। मूर्खमतिः। मूरख अन्वयः – यः (जनः) धर्मप्रदां वाचं त्यक्त्वा परुषां (वाणीम्) अभ्युदीरयेत्, (सः) विमूढधीः पक्वं फलं परित्यज्य अपक्वं (फलं) भुङ्क्ते। हिन्द्यर्थः – जो मनुष्य धर्मदायी बातों को छोड कर कठोर बाते बोलता है, वह मूर्खमति (मनुष्य ऐसा समझो कि जैसे) पका हुआ फल छोड कर कच्चे फल को खाता है। धर्म शब्द का अर्थ होता है कर्तव्य, और हमार कर्तव्य है कि सभी के साथ मीठी और अच्छी बाते करें। और ऐसी बातें सभी को अच्छी लगती है। परन्तु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो हमेशा (जरूरत ना होने पर भी) कठोर और रुक्ष बाते करते रहते हैं। जो किसी को भी अच्छी नहीं लगती। ऐसे मनुष्य तो मानो जैसे पके फल को छोड कर कच्चे ही फलों को खा रहे हैं। जैसे पके फल सभी को खाने में अच्छे लगते हैं और कच्चे फल खाने में अच्छे नहीं लगते। वैसे ही मीठी बाते तो सभी लोग कर सकते हैं परन्तु ऐसी मीठी बातों को छोड कर कच्चे फल खाने जैसी कठोर बाते लोग करते रहते हैं।हमारे कवि ऐसे लोगों को विमूढधी कहते हैं। यानी मूर्खमति।भावार्थः –सर्वे जनाः मधुरं वक्तुं शक्नुवन्ति। तथापि केचन जनाः मधुरवाणीं, धर्मवाणीं त्यक्त्वा अधर्मयुक्तं कठोरं च वदन्ति। एतादृशाः जनाः तादृशाः मूर्खाः सन्ति यथा कश्चन मूर्खः जनः पक्वं मधुरं फलं परित्यज्य अपक्वम् एव फलं खादति। अतः सर्वदा मधुरं प्रियं धर्मयुक्तं च भाषणं करणीयम्। व्याकरणम् – त्यक्त्वा – त्यज् + क्त्वा (प्रत्ययः) योऽभ्युदीरयेत् यः + अभ्युदीरयेत्। उत्वं गुणः पूर्वरूपं च इति सन्धिकार्याणि। अभि + उत् + ईरयेत्। उपसर्गद्वयम्। ईर् धातुः विधिलिङ् लकारः च। परित्यज्य – परि + त्यज् + ल्यप्। उसपर्गः + धातुः + प्रत्ययः॥ भुङ्क्तेऽपक्वम् भुङ्क्ते + अपक्वम्। पूर्वरूपम् इति सन्धिकार्यम्। भुङ्क्ते – भुज् + लट्लकारः। अपक्वम् – न पक्वम्। नञ्तत्पुरुषः समासः।
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१०.०९ सूक्तयः। ०२. अवक्रता यथा चित्ते
९. सूक्तयः कक्षा दशमी। शेमुषी द्वितीयः श्लोकः अवक्रता यथा चित्ते तथा वाचि भवेद् यदि। तदेवाहुः महात्मानः समत्वमिति तथ्यतः॥ शब्दार्थः – अवक्रता – सरलता। सीधापन, टेढा ना होना यथा – यादृशी। जैसे चित्ते – मनसि। मन में तथा – तादृशी। वैसे वाचि – वाण्याम्। वाणी में, बोलने में भवेत् – हो जाएं यदि – अगर तत् – वह / उसे एव – ही आहुः – कथयन्ति। वदन्ति। कहते हैं महात्मानः – महापुरुषाः। बडे़ लोग, महान लोग समत्वम् – समता। समानता तथ्यतः – वस्तुतः। सच में, Indeed अन्वयः – यथा चित्ते तथा वाचि (अपि) यदि अवक्रता भवेत्, (तर्हि) तत् एव तथ्यतः समत्वम् (अस्ति) इति महात्मानः आहुः। हिन्द्यर्थः – जैसे मन में वैसे ही बोलने में भी अगर अवक्रता (सीधापन) हो जाए, तो वह ही सच्ची समानता है ऐसा महात्मा लोग कहते हैं। महापुरुषों ने सच्ची समानता किसे कहा है इस बात को इस श्लोक में बताया गया है। जिस प्रकार से कोई भी मनुष्य अपने मन से यदि निष्पक्ष बुद्धि से सोचता है और उसी प्रकार से अपने बोलने में (और कर्तृत्व में भी) बरताव करें तो वह ही सच्ची समानता है। हम ने व्यवहार में बहुत बार देखा है कि लोगों के मन में कुछ और बोलने में और ही कुछ होता है। हमारा मन हमेशा समत्व बुद्धि से ही सोचता है परन्तु जब हम वास्तव में कुछ व्यवहार करते हैं, तो उस वक्त हम अपने मन की सरलता को अनसुना कर देते हैं और अपने फायदे के लिए कुछ दूसरा ही करते हैं। हमारा मन हमेशा हमें सही और गलत बातों के बारे में अपनी राय देता है। और मन की उस सरलता को ही हमें अपने बरताव में लाना चाहिए। भावार्थः महापुरुषाणां दृष्ट्या समत्वं किम्? इति अस्य श्लोकस्य विषयः अस्त। मनुष्यस्य मनसि यथा सरलता भवति तथा एव यदि मनुष्यस्य वाण्यां व्यवहारे च अपि भवेत्, तर्हि तत् समानम् आचरणम् एव समत्वम् अस्ति इति महापुरुषाः वदन्ति। व्याकरणम् – अवक्रता न वक्रता। नञ् तत्पुरुषः। अवक्र + तल् (प्रत्ययः) भवेत् – भू + विधिलिङ्। वाचि – वाच् + सप्तमी। भवेद् यदि – भवेत् + यदि। जश्त्वम्। तदेवाहुः – तत् + एव + आहुः। जश्त्वं सवर्णदीर्घः च। समत्वम् – सम + त्व (प्रत्ययः) तथ्यतः – तथ्य + तसिल् (प्रत्ययः)।
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१०.०९ सूक्तयः। ०४. विद्वांस एव लोकेऽस्मिन्
९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी चतुर्थः श्लोकः विद्वांस एव लोकेऽस्मिन् चक्षुष्मन्तः प्रकीर्तिताः।अन्येषां वदने ये तु ते चक्षुर्नामनी मते॥४॥ शब्दार्थः – विद्वांसः – विद्यावन्तः। ज्ञानवन्तः। विद्वान लोग एव – ही लोके – संसारे। विश्वे। दुनिया में अस्मिन् – एतस्मिन्। इस चक्षुष्मन्तः – नेत्रधारिणः। नेत्रवन्तः। जिनकी आखें हैं वे, आँखो वाले प्रकीर्तिताः – प्रसिद्धाः। यहां संदर्भ के अनुसार – कहलाए हैं, माने गए हैं अन्येषाम् – इतरजनानाम्। इतरेषाम्। बाकी लोगों के वदने – मुखे। चेहरे पर ये – जो तु – अव्ययपदम्। ते – वे चक्षुर्नामनी – नाम की ही आँखें। (यह शब्द नपुंसकलिंग द्विवचन का है) मते – माने गए हैं अन्वयः – अस्मिन् लोके विद्वांसः एव चक्षुष्मन्तः (सन्ति इति) प्रकीर्तिताः। अन्येषां वदने ये (नेत्रे स्तः) ते तु चक्षुर्नामनी मते (स्तः)। हिन्द्यर्थः – इस दुनिया में विद्वान लोग ही (सच्ची) आँखो वाले हैं ऐसा माना गया है। बाकियों के चेहरे पर जो आँखे हैं वे तो नाम की ही आँखें मानी गई हैं। आँखों का काम होता है देखना। आँखे हमें रास्ता दिखाती हैं। और यही काम ज्ञान भी करता है। ज्ञानी मनुष्य अपने भविष्य का रास्ता देख सकता है। आगे भविष्य में हमें क्या करना है और क्या नहीं इस बात का निर्णय ज्ञान के भरोसे ही लिया जा सकता है। जिसके पास ज्ञान रूपी आँखे नहीं है वह अपने जीवन में गलत निर्णय भी ले सकता है। और ऐसे गलत निर्णयों की वजह से उसे बहुत सारी तकलीफें भी झेलनी पडती है।इसीलिए हमारे कवि कहते हैं – विद्वांसः एव चक्षुष्मन्तः यानी विद्वान् लोग ही असली आँखों वाले होते हैं। क्योंकि विद्वान् लोगी ही आगे की देख सकते हैं। जिनके पास केवल शारीरिक आँखे हैं वे केवल आने जाने का भौतिक रास्ता देख सकते हैं। परन्तु ऐसे लोग (जिनके पास केवल शारीरिक आँँखे हैं लेकिन ज्ञान की आँखें नहीं हैं वे) जीवन में बार बार ठोकरे खाते हैं। इसीलिए ऐसी आँखों के कवि चक्षुर्नामनी यानी केवल नाम की आँखे कहते हैं। भावार्थः – अस्मिन् संसारे ये जनाः ज्ञानवन्तः सन्ति ते एव वास्तविकरूपेण नेत्रवन्तः सन्ति। यतः ज्ञानम् एव जीवनमार्गं दर्शयितुं शक्नोति। येषांं समीपं केवलं शारीरिके नेत्रे स्तः, तेषां नेत्रे तु केवलं नाम्ना नेत्रे स्तः। यतः एतादृशाः अज्ञानिनः जनाः जीवने बहूनि कष्टानि अनुभवन्ति। व्याकरणम् – विद्वांसः – विद्वस् इति सकारान्तः पुँल्लिङ्गशब्दः। बहुवचनम्। विद्वांस एव – विद्वांसः + एव। विसर्गलोपः। लोकेऽस्मिन् – लोके + अस्मिन्। पूर्वरूपम्। चक्षुष्मन्तः चक्षुष् + मतुप् (प्रत्ययः)। चक्षुष्मत् – पुँ॰ प्रथमा बहुवचनम्। प्रकीर्तिताः – प्र (उपसर्गः) + कीर्त् (धातुः) + क्तः (प्रत्ययः) चक्षुर्नामनी चक्षुः + नामनी। रुत्वम्। नामनी – नाम, नामनी, नामानि। इति द्विवचनम्। मते मन्(धातुः) + क्तः(प्रत्ययः) मत + नपुंंसकलिङ्गम्, द्विवचनम्
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१०.०९ सूक्तयः। ०५. यत् प्रोक्तं येन केनापि
९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी। पञ्चमः श्लोकः यत् प्रोक्तं येन केनापि तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः।कर्तुं शक्यो भवेद्येन स विवेक इतीरितः॥५॥ शब्दार्थः – यत् – जो भी प्रोक्तम् – कथितम्। कहा गया है येन – जिस केन – किसी ने अपि – भी तस्य – उस का तत्त्वार्थनिर्णयः – वास्तविकः अर्थः। सही मतलब कर्तुम् – करना शक्यः – मुमकिन भवेत् – हो सकता है येन – जिस से सः – असौ। वह विवेकः – विवेक (सही गलत समझने का ज्ञान) इति – ऐसा ईरितः – कथितः। कहा गया है। अन्वयः – येन केन अपि (मानवेन) यत् (किमपि) प्रोक्तं तस्य तत्त्वार्थनिर्णयः येन कर्तुं शक्यः, सः विवेकः इति ईरितः (अस्ति)। हिन्द्यर्थः – जिस किसी भी मनुष्य ने जो कुछ भी कहा है, उसका सही मतलब जिस से समझना मुमकिन होता है, उसे ‘विवेक’ ऐसा कहा गया है। हम व्यवहार में देखते हैं कि हमरे साथ बहुत सारे लोग बाते करते हैं। परन्तु बहुत बार हमें कुछ ऐसे भी लोग मिल जाते हैं जो बोलते हैं कुछ और उनके कहने का मतलब होता है कुछ और। ऐसे चक्कर में हम फस जाते हैं और हमारा नुकसान हो जाता है। इसीलिए हमें हमेशा चौकन्ना रहना चाहिए कि सामने वाला हमारे साथ जो भी बात कर रहा है उसके पीछे का मतलब क्या है? इसके बारे में हमें हमेशा सोचना चाहिए। क्या उसके मन में कोई स्वार्थ तो नहीं? हम से मिलने वाली हर व्यक्ति हम से प्यार भरी बाते ही करती हैं। परन्तु उसके मन में छुपा हुआ स्वार्थ हमें अपनी बुद्धि से पहचानना चाहिए। और उसी बुद्धि को विवेक कहते हैं। जैसे कि दो भाई बहुत बडे प्रेम से रहते हैं। लेकिन समाज में कुछ लोगों के उनका प्रेम और प्रगति देखी नहीं जाती। तो वे उन दोनों में से बडे भाई को बताते हैं कि तुम्हे दौलत का ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिए क्योंकि तुम बडे हो। तुम ने ही बडे होने के नाते काम कर के घर को संभालने में पिता को मदद की है। और छोटे को कहते हैं कि तुम्हे दौलत का ज्यादा हिस्सा मिलना चाहिए क्योंकि तुम छोटे हो। बडे भैया तो किसी तरह अपना गुजारा कर लेंगे। लेकिन तुम्हारा क्या होगा? जब लोग ऐसी बातें करते हैं तो उन दोनों भाईयों को अपने विवेकबुद्धि से इन बातों का असली मतलब (तत्त्वार्थनिर्णय) समझना चाहिए। अगर उन्हों ने विवेक से काम नहीं लिया। तो आपस में झगडने से उन दोनों का ही नुकसान होगा। भावार्थः – विवेकः इत्यस्य शब्दस्य अर्थः अस्मिन् श्लोके कथितः अस्ति। अस्माभिः सह अनेके जनाः भिन्नभिन्नप्रकारेण भाषणं कुर्वन्ति। तेषां कथनस्य विश्लेषणं येन कर्तुं शक्यते सः विवेकः इति नाम्ना ज्ञायते। व्याकरणम् – प्रोक्तम् – प्र + उक्तम्। गुणः। केनापि – केन + अपि। दीर्घः। तत्त्वार्थनिर्णयः – तत्त्वार्थस्य निर्णयः। षष्ठी तत्पुरुषः। कर्तुम् – कृ + तुमुन्। शक्यो भवेद्येन – शक्यः + भवेत् + येन। उत्वं, जश्त्वं च। स विवेकः – सः + विवेकः। विसर्गलोपः। विवेक इति – विवेकः + इति। विसर्गलोकः। इतीरितः – इति + ईरितः। दीर्घः।
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१०.०९. सूक्तयः। ०६ वाक्पटुर्धैर्यवान् मन्त्री। मन्त्री कैसा होना चाहिए?
९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE षष्ठः श्लोकः वाक्पटुर्धैर्यवान् मन्त्री समायामप्यकातरः।स केनापि प्रकारेण परैर्न परिभूयते।। ६।। शब्दार्थः – वाक्पटुः – संभाषणचतुरः। बोलने में चतुर धैर्यवान् – जल्दबाजी न करने वाला मन्त्री – परामर्शकः। सलाह देने वाला, बोलने वाला सभायाम् – सभा में अपि – भी अकातरः – निडर, जो हिचकिचाता नहीं है सः – वह केन – किसी अपि – भी प्रकारेण – माध्यमेन। तरीके से परैः – अन्यजनैः। दूसरे लोगों के द्वारा न – नहीं परिभूयते – पराजितः भवति। पराजित किया जा सकता है अन्वयः – (यः) मन्त्री वाक्पटुः, धैर्यवान्, सभायाम् अपि अकातरः (अस्ति) सः परैः केन अपि प्रकारेण न परिभूयते। हिन्द्यर्थः – जो मन्त्री बोलने में चतुर, धैर्यवान् और (भरी) सभा में भी न हिचकिचाने वाला होता है, उसे अन्य लोग किसी भी प्रकार से पराजित नहीं कर सकते। मन्त्री यानी बोलने वाला, सही सलाह देने वाला। अब जिसका काम ही बोलना है, उसे ते वाक्पटु होना ही चाहिए। अब बहुत सारे लोग बुद्धिमान् होते हैं। वे अच्छी बातों को सोच सकते हैं। परन्तु उसे भरी सभा में बोलने से हिचकिचाते हैं। ऐसे लोगों की बात मन के मन में ही रह जाती है। फिर ऐसे लोग जीवन के संघर्ष में दूसरे लोगों के द्वारा पराजित होते हैं।इसीलिए कविकहते हैं कि बोलने में चतुर, धैरशील और सभा में बेफिक्र हो कर बोलने वाला ही मन्त्री हमेशा अजेय रहता है। भावार्थः – यः मन्त्री भाषाप्रयोगे दक्षः भवति, सर्वदा धैर्यं धारयति तथा च सभायां भयं न अनुभवति सः एव अन्येषां जनानां द्वारा पराजितः न भवति। व्याकरणम् – वाक्पटुः – वाचि पटुः। सप्तमी तत्पुरुषः। वाक्पटुर्धैर्यवान् – वाक्पटुः + धैर्यवान्। रुत्वसन्धिः। धैर्यवान् धैर्य + मतुप्(प्रत्ययः) धैर्यवत् धैर्यवत् + पुँल्लिङ्ग – प्रथमा मन्त्री मन्त्र् + इन्(प्रत्ययः) मन्त्रिन् मन्त्रिन् + पुँल्लिङ्ग-प्रथमा अप्यकारतरः – अपि + अकातरः। यण् सन्धिः। अकातरः – न कातरः। नञ् तत्पुरुषः। स केनापि – सः + केन + अपि। लोपः दीर्घः। परैर्न – परैः + न। रुत्वसन्धिः।
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१०.०९. सूक्तयः। ०७. य इच्छत्यात्मनः श्रेयः।
९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE संस्कृतम्। सप्तमः श्लोकः य इच्छत्यात्मनः श्रेयः प्रभूतानि सुखानि च। न कुर्यादहितं कर्म स परेभ्यः कदापि च॥७॥ शब्दार्थः – यः – जो इच्छति – वाञ्छति। चाहता है। आत्मनः – स्वकीयः। स्वस्य। खुद का श्रेयः – कल्याणम्। भला प्रभूतानि – बहुत सारे सुखानि – सुख च – और न – नहीं कुर्यात् – करणीयम्। करना चाहिए अहितम् – बुरा कर्म – काम सः – वह (यहां उसने) परेभ्यः – अन्येभ्यः। दूसरे लोगों के लिए कदापि – कभी भी च – और अन्वयः – यः (मनुष्यः) आत्मनः श्रेयः प्रभूतानि च सुखानि इच्छति, सः च कदापि परेभ्यः अहितं कर्म न कुर्यात्। हिन्द्यर्थः – जो मनुष्य खुद का भला और बहुत सारा सुख चाहता है उसे कभी भी दूसरों के लिए बुरा काम करना नहीं चाहिए। जैसी करनी वैसी भरनी। यह न्याय तो सभी को पता है। इसीलिए इस श्लोक के माध्यम से कवि कहते हैं कि जो अपना भला और अपने लिए सुख चाहता है उसे दूसरों के साथ भी बुरा बरताव नहीं करना चाहिए। अर्थात् हम यदि दूसरों के साथ अच्छा और भलाई का व्यवहार करेगे तो ही हमें बदले में अच्छी बाते मिलेगी। भावार्थः – मनुष्यः अन्येन जनेन सह यथा व्यवहारं करोति तथैव तस्य परिणामः भवति। अतः यः मनुष्यः स्वस्य कल्याणं बहूनि सुखानि च इच्छति तेन मनुष्येण अन्यैः जनैः सह अहितं कर्म न करणीयम्। व्याकरणम् य इच्छति – यः + इच्छति। विसर्गलोपः। इच्छत्यात्मनः – इच्छति + आत्मनः। यण् सन्धिः। आत्मनः – आत्मन् + षष्ठी विभक्तिः। कुर्यादहितम् – कुर्यात् + अहितम्। जश्त्वम्। स परेभ्यः – सः + परेभ्यः। विसर्गलोपः। कदापि – कदा + अपि। दीर्घः।
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१०.०९ सूक्तयः। ०८. आचारः प्रथमो धर्मः
९. सूक्तयः। कक्षा दशमी। शेमुषी। CBSE संस्कृतम्। अष्टमः श्लोकः आचारः प्रथमो धर्मः इत्येतद् विदुषां वचः।तस्माद् रक्षेत् सदाचारं प्राणेभ्योऽपि विशेषतः॥८॥ शब्दार्थः – आचारः – व्यवहारः। बरताव प्रथमः – प्रमुखः। पहला, महत्त्वपूर्ण धर्मः – कर्तव्यम्। इति – ऐसा एतत् – यह विदुषाम् – विद्वज्जनानाम्। विद्वान् लोगों का वचः – वाक्यम्। वचनम्। कथनम्। कहना, बोलना तस्मात् – अतः। इसीलिए रक्षेत् – रक्षणं करणीयम्। रक्षा करणीया। रक्षण करना चाहिए सदाचारम् – अच्छे वर्तन को, अच्छे बरताव को प्राणेभ्यः – जान से अपि – भी विशेषतः – खास तौर पर अन्वयः – आचारः प्रथमः धर्मः (अस्ति) इति एतत् विदुषां वचः (अस्ति।) तस्मात् (मनुष्यः) प्राणेभ्यः अपि विशेषतः सदाचारं रक्षेत्। हिन्द्यर्थः – (हमारा) आचरण प्रमुख धर्म है ऐसा यह विद्वान लोगों का कहना है। इसीलिए मनुष्य ने प्राणों से भी बढकर सदाचार की रक्षा करनी चाहिए। एक बार महाभारत में युधिष्ठिर ने कहा था कि धर्म का तत्त्व समझने में बहुत कठिन है। बडे बडे लोग भी इसमें भ्रम का शिकार हो जाते है तो सामान्य लोगों की बात ही क्या?इसीलिए सामान्य लोगों के लिए युधिष्ठिर कहते हैं कि जिस रास्ते से विद्वान लोग, बडे लोग चलने की सलाह देते हैं वही रास्ता सामान्य मनुष्यों को भी अपनाना चाहिए।प्रस्तुत श्लोक में कवि विद्वान् लोगों का प्रमुख धर्म के बारे में विद्वानों का क्या कहना है इस बारे में बता रहे हैं। इस श्लोक के माध्यम से कवि कहते हैं कि – विद्वानों के कहने के मुताबिक आपना (अच्छा) बरताव ही सबसे पहला (महत्त्वपूर्ण) धर्म (कर्तव्य) होता है। इसीलिए अपने सदाचार को (अच्छे बरताव को) अपनी जान से भी ज्यादा संभालना चाहिए।हमारे भारतवर्ष का इतिहास भी ऐसे ही धर्मप्रेमी लोगों की परम्परा से भरा पडा है। जगह जगह पर अपने सदाचार के लिए, अपने कर्तव्य के लिए अपने प्राणों को भी त्याग देने वाले महापुरुष हमें अपने इतिहास में मिल सकते हैं।और हमें अपने सद्वर्तन के खातिर जान तक गवांने वाले महापुरुषों का आदर्श लेना चाहिए। भावार्थः – अस्माकं सद्वर्तनम् एव सर्वेभ्यः धर्मेभ्यः प्रमुखः धर्मः अस्ति इति विद्वज्जनाः वदन्ति। अतः धर्मपरायणेन मनुष्येण अपि स्वस्य सद्वर्तनस्य एव रक्षणं करणीयम्। प्राणेभ्यः अपि विशेषतः मनुष्यः सद्वर्तनस्य रक्षणं कर्तुम् अर्हति। व्याकरणम् – प्रथमो धर्मः – प्रथमः + धर्मः। उत्वं, गुणः च। इत्येतत् – इति + एतत्। यण्। एतद् विदुषाम् – एतत् + विदुषाम्। जश्त्वम्। वचः – वचस् इत्यस्य सकारान्तनपुंसकलिङ्गशब्दस्य प्रथमा एकवचनम्। तस्माद्रक्षेत् – तस्मात् + रक्षेत्। जश्त्वम्। प्राणेभ्योऽपि – प्राणेभ्यः + अपि। उत्वं, गुणः, पूर्वरुपं च।
धन्यवाद
ज्ञान बांटने से बढ़ता है।
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