यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः। श्लोक का अर्थ, अनुवाद और स्पष्टीकरण॥
क्या आप किंकर्तव्यमूढ हो गए हैं? यानी आप को समझ नहीं आ रहा है कि क्या करे और क्या नहीं करें?
मनुष्य को कौन सा काम जरूर करना ही चाहिए?
और कौन सा काम वर्जित (टालना, avoid) चाहिए?
इन प्रश्नों के उत्तर अपनी ही आत्मा से पूछ कर मिल सकते हैं। इस संस्कृत सुभाषित को पढ़िए –
संस्कृत श्लोक
यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः। तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥
English (Roman) Transliteration (IAST)
yatkarma kurvato’sya syātparitoṣo’ntarātmanaḥ|
tatprayatnena kurvīta viparītaṃ tu varjayet||
श्लोक का पदच्छेद
यत् र्म कुर्वतः अस्य स्यात् परितोषः अन्तरात्मनः।
तत् प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥
श्लोक का हिन्दी और अंग्रेजी में शब्दार्थ
संस्कृत | हिन्दी | English |
यत् | जो | Which |
कर्म | कार्यम्, काम | Work |
कुर्वतः | करने वाले, करते हुए अथवा करने से | While doing, by doing |
अस्य | इस | It’s, …of it |
स्यात् | हो जाए, | Should be |
परितोषः | समाधान, सन्तुष्टिः | Satisfaction |
अन्तरात्मनः | अन्तरात्मा की | Inner sole |
तत् | वह | That |
प्रयत्नेन | प्रयत्नपूर्वक, कोशिक के साथ | Diligently |
कुर्वीत | करना चाहिए | Should do |
विपरीतम् | उलटा | Opposite |
तु | तो | – |
वर्जयेत् | वर्जित करना चाहिए, टालना चाहिए | Should avoid |
श्लोक का अन्वय
अस्य अन्तरात्मनः परितोषः यत् कर्म कुर्वतः स्यात्, तत् (कर्म) प्रयत्नेन कुर्वीत। (परन्तु तस्मात्) विपरीतं तु वर्जयेत्।
श्लोक का हिन्दी अनुवाद
इस अन्तरात्मा की संतुष्टि जो काम करने से हो जाए, वह कार्य प्रयत्नपूर्वक करना चाहिए। लेकिन उस से उलटा काम टालना चाहिए।
English Translation of the Shloka
The work which gives the satisfaction to this inner soul that work should be done diligently. But opposite should be avoided.
श्लोक का स्पष्टीकरण
हमारी आत्मा ईश्वर का अंश है। हमारी आत्मा हमें प्रत्येक समय मार्गदर्शन करती है। प्रत्येक बुरे कार्य करने से पहले हमारी आत्मा बताती है, “रुको! यह काम मत करो। यह बुरा है।“ और यदि हम किसी की मदद करें, कोई पुण्य का काम करें तो हमे अंदरूनी आनंद भी होता है। इसीलिए हमेशा अपनी अन्तरात्मा की आवाज को सुनना चाहिए।
किसी का भला करना, कोई अच्छा काम करना, मन्दिर में जाकर ईश्वर को प्रणाम करना, बडे बुजुर्गों की सेवा करना इ॰ ये ऐसे काम हैं जो करने से अपनी अंतरात्मा को अच्छा लगता है। और ऐसे ही काम (जो करने से यदि आत्मा प्रसन्न होती है) मनुष्य को परिश्रम से भी करने चाहिए।
और इस के विपरीत (उलटा) जो काम है वह टालना चाहिए। अर्थात् किसी का बुरा करने से आत्मा को अच्छा नहीं लगता है। पाप करने से अपनी आत्मा को संतोष नहीं होता है। इसीलिए ऐसे काम नहीं करना चाहिए।