श्लोक

यत्रापि कुत्रापि गता भवेयु

श्लोक

यत्रापि कुत्रापि गता भवेयुर्-
हंसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां
येषां मरालैः सह विप्रयोगः॥

- भामिनीविलास

रोमन लिप्यन्तरण

yatrāpi kutrāpi gatā bhaveyur-
haṃsā mahīmaṇḍalamaṇḍanāya।
hānistu teṣāṃ hi sarovarāṇāṃ
yeṣāṃ marālaiḥ saha viprayogaḥ॥

पदविभाग और शब्दार्थ

  • यत्र – जहाँ
  • अपि – भी
  • कुत्र – कहाँ
  • अपि – भी
  • गताः – जा चुके
  • भवेयुः – हो (should be)
  • हंसा – हंस (बहुवचन)
  • महीमण्डलमण्डनाय – पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए (यानी घूमने के लिए)
  • हानिः – नुकसान
  • तु – हो
  • तेषाम् – उनकी
  • हि – ही
  • सरोवरानाम् – तालाबों की
  • येषाम् – जिन का
  • मरालैः – हंसों से
  • विप्रयोगः – वियोग, अलगाव

अन्वय

हंसाः यत्र अपि कुत्र अपि महीमण्डलमण्डनाय गताः भवेयुः। हानिः तु तेषां सरोवराणां हि (भवति), येषां (सरोवराणां) मरालैः सह विप्रयोगः (भवति)॥

हिन्दी अनुवाद

हंस जहाँ कही भी पृथ्वी को सुशोभित करने के लिए चले जाएं। नुकसान तो उन सरोवरों का ही होता है, जिन तालाबों का हंसों से अलगाव होता है।

श्लोक का स्पष्टीकरण

इस श्लोक में हंस का तात्पर्य है – गुणवान् लोग। ये गुणवान् लोग जहाँ कहीं भी चले जाते हैं वहां के लोगों को फायदा होता है। लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि जहाँ गुणवान् लोग रहते हैं, वहाँ के लोगों को इन गुणवान् लोगों की कद्र नहीं होती। कई बार तो उनके साथ दुर्व्यवहार तक किया जाता है।

और जब वे गुणी लोग वहाँ से चले जाते हैं, तो किसका नुकसान हुआ?

हंस जब तालाब को छोड़ कर जाते हैं, तो हंसों का नुकसान नहीं होता। वहां तो तालाब का नुकसान होता है। क्योंकि हंस उसके पास से जा रहे हैं। ठीक उसी प्रकार यदि गुणी मनुष्य किसी स्थान से चला जाए, तो उस स्थान का (उस स्थान पर रहने वाले लोगों का) नुकसान है।

हम एक विद्यालय में संस्कृत शिक्षक हैं। और हमारे विद्यालय में एक बहुत गुणवान् शिक्षक थे। उनका विषयज्ञान बहुत ही अच्छा था। वे बहुत अच्छा पढ़ाते थे। छात्रों को जिस चीज की जरूरत होती थी, उस को वे बहुत आग्रह से पढ़ाते थे।

परन्तु आजकल के छात्रों को अच्छा सिखानेवाले शिक्षक नहीं चाहिए होते हैं। दो-तीन बच्चों की उल्टीसीधी शिकायतों के चलते विद्यालय प्रशासन ने उन को विद्यालय से निकाल दिया। (हम निजी विद्यालय की बात कर रहे हैं। सरकारी नहीं)

अब इसमें वे अच्छे शिक्षक तो गुणी थे। हमारे श्लोक के हंस जैसे थे। वे तो चले गए। किसी दूसरे विद्यालय में पढ़ाने लग गए। परन्तु उनके जाने के बाद हमारे विद्यालय को गलती का अनुभव हुआ। नए शिक्षक जल्दी से मिले नहीं। और जो मिले उनमे वह बात नहीं थी। तब हमारे मुँह से अनायास ही निकल गया –

यत्रापि कुत्रापि गता भवेयुर्हंसा महीमण्डलमण्डनाय।
हानिस्तु तेषां हि सरोवराणां येषां मरालैः सह विप्रयोगः॥

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